________________ तृतीयसगः 1397 धानरूपम् तत् न कर्ता किम् ? अपि तु कतैवेति काकुः। संतप्तानां कृते ब्रह्मनिर्मित वीरषषासस्या मूलत्वम्-नलदत्वम्-प्राप्य त्वं चन्दनवत् मे हृदयं शोतलोकुविति भावः / / 90 // व्याकरण-प्रात्मभूः आत्मन् ++विवप् ( कर्तरि ) / कृत्यम् V+क्यप् (विकल्प से), तुगागम / कृस्यं कर्ता 'न लोका.' 1966 से षष्ठी-निषेध / अनुवाद-असमय में ही काम द्वारा मेरे भीतर किये गये संघर्ष का कारण बनकर मी तुम पक्षी ( हंस ) नल देकर मेरे हृदय हेतु चन्दन-हेप का कार्य नहीं करोगे क्या ? तथा ब्रह्मा द्वारा मेरे निमित्त विना डंडी का रचित वीरण-घास की जड़ वन के नलद-खसखस का रूप अपनाकर तुम मेरे हृदय ( का संताप मिटाने ) के लिए चन्दन लेप का-सा काम नहीं करोगे क्या ? // 90 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने श्लेष का अच्छा चमत्कार दिखाया है। अकाण्डम् यात्मभुवा मूलम् वीरप्पस्य, नलदत्वम् में शब्द-श्लेष है, वह भी कहीं सभंग है, कहीं अभंग है। अन्यत्र अर्थश्लेष है। दोनों अर्थ प्रस्तुत होने से यह शुद्ध श्लेषालंकार है। हंस पर नलदत्व के आरोप में रूपक होना चाहिए था, किन्तु हंस 'नलद' बनकर प्रकृत में चन्दनलेप के उपयोग में आने से रूपक परिपामालंकार बन गया है, जिसका श्लेष के साथ सांकर्य है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। नलदत्वम् नलद वीरण घास की जड़ को कहते हैं, जिसका उशीर अथवा हिन्दी में खसखस नाम है। खसखस की जड़ों की चिक बनतो हैं जो ताप मिटाकर भीतर ठंडक पहुँचाती है। पहले इसका लेप चन्दनलेप की तरह शरीर पर संताप मिटाने हेतु प्रयुक्त होता था। 'नलद' का दसरा अर्थ नल को देनेवाला है। भलं विलम्ब्य त्वरितुं हि वेला कार्य किल स्थैर्यसहे विचार / गुरूपदेश प्रतिभेव तीक्ष्णा प्रतीक्षते जातु न कालमतिः // 11 // अन्धयः-(हे हंस,) विलम्ब्य अलम् , हि त्वरितुम् वेला ( अस्ति); स्थैर्य-सहे कायें किस विचारः (क्रियत ): तीक्ष्णा प्रतिमा गुरूपनेशम् इव तीक्ष्णा अतिः न जातु कालं प्रतीक्षते / टीका-(हे हंस, ) विलम्ब्य विलम्बं कृत्वा अलम् विलम्बो न कार्य इत्यर्थः, हि यतः त्वरित विषयेऽस्मिन् वरा कर्तु वेला समयः अस्तीति शेषः / स्थिरस्य भावः स्थैर्य तस्य सहे क्षमे ( 10 तत्प) विलम्बसापेक्षे इति यावत् कायें किलेत अवधारणे विचारो विमर्शः क्रियते इति शेषः / तत्कालक्रियमाणे काय विचारस्य प्रश्न एव नोत्तिष्ठतीत्यर्थः। तीक्ष्णां तीव्रा प्रतिमा नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धिः गरो अध्यापकस्य उपदेशं शिक्षाम् (10 तत्पु०) व तीक्ष्णा अतिः पीडा विरह-पोडेत्यर्थः न जाताना कदापि कालं समयं प्रतीशते प्रतिपालयति, यथा गुरूपदेशकालात् पूर्वमेव तीक्ष्यप्रतिभा शास्त्रार्थ वेत्ति.. तथैव तीक्ष्णविरहपीडा विवाहकालाव पूर्वमेवात्यधिकं जायते इति भावः // 11 // ___ म्याकरण-प्रलं विलम्भ्य निषेधार्थ में अलम् से करवा, क्त्वा का ल्यप् / वरितम् वेला वेला के साथ Vवर को तुम् ( 'काल-समय-वेलासु तुमुन् 3 / 3 / 167) / ०सहः सहते इति /स+अचू! ( कर्तरि ) / अतिः अर्द+क्तिन् (मावे)। . अनुवाद-(हे हंस ) विलम्ब न करो, क्योंकि यह समय जल्दी करने का है; विलम्ब सहना