________________ नैषधीयचरिते से मेरी आँखों को हुई प्रसन्नता से और मी अधिक प्रसन्नता उत्पन्न कर दे ? चन्द्रमा अपने अमृतों द्वारा लोगों की छाँखों को सींचने के अतिरिक्त ( और ) क्या कर ( सकता ) है ? टिप्पणी-यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध का परस्पर बिम्ब प्रतिबिम्ब माव होने से दृष्टान्तालंकार है, लेकिन विद्याधर ने आक्षेप माना है। आक्षेप अलंकार वहाँ होता है, जहाँ किसी अभीप्सित बात को प्रत्यक्ष रूप में दबा दिया जाता है अथवा उससे इनकार कर दिया जाता है / यहाँ दमयन्ती लज्जावश हंस के आगे शब्द-जाल में अपनी नल प्राप्ति रूर अभाप्तित बात छिपा रही है। शब्दालंकार 'मुदं' 'मद' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मनस्तु यं नोज्झति जातु यातु मनोरथः कण्ठपथं कथं सः / का नाम बाला द्विजराजपाणिग्रहामिलाषं कथयेदलज्जा // 59 // अन्वयः-(हे हंस, ) मनः यम् ( मनोरथं ) तु न जातु उज्झति, स मनोरथः कण्ठ-पथम् ___टीका-(हे हंस, ) मनः चित्तं यम् मनोरथं तु न जातु न कदापि उज्झति त्यजति, स मनोरथोऽभिलाषः कण्ठस्य पन्थानम् मार्गम् वाग-विषयत्वमित्यर्थः (10 तत्पु० ) कथं केन प्रकारेण यातु गच्छतु ? निम्नदेशस्थमनसा बद्धोऽभिलाष उपरिस्थकण्ठदेशं कथमागच्छतु, मे मनोऽभिलाष: कथयितुं न शक्यते इति मावः। का नामेति कोमलामंत्रणे बाला कन्या अलजा न लज्जा पाऽस्यास्तीति तथाभूता ( ना ब० वी० ) सतो द्विजानां नक्षत्राणो राजा चन्द्र इत्यर्थः (10 तत्पु० ) तस्य यः पाणि. ग्रहः (10 तत्पु० ) पाणिना करेण ग्रहः ग्रहणम् (तृ० तत्पु० ) तस्मिन् अभिलाष वान्छाम् ( स० तत्पु० ) कथयेत् वदेत् न कापीति काकुः, निर्लज्जा न कापि बालिका स्वहस्तेन चन्द्रग्रहणेच्छां प्रकटयेत् असम्भवत्वादित्यर्थः / अथ च द्विजानां ब्राह्मणादीनां राजा नल इत्यर्थः तेन सह पाणिग्रहत्य विवाहस्याभिलाषम् / बालिकात्वात् कथमह निर्लज्जीभूय नलेन सह स्वविवाहेच्छां कथयितुं प्रभवा. मीति मावः // 5 // ___ण्याकरण-कण्ठपथम् -पथिन् को समासान्त अप्रत्यय ( 'ऋभूरब्धःपथा०' ( 5 / 4 / 74 ) / ग्रहः ग्रह +अच् ( भावे ) / अनुवाद-मन तो जिस ( मनोरथ ) को कमी छोड़ता ही नहीं, वह गले तक कैसे आए ? मला कौन निर्लज्ज लड़की द्विजराज ( चन्द्रमा ) को हाथ से पकड़ने [ द्विजराज ( राजा नल ) के साथ विवाह करने ] की इच्छा कहेगी? ___ टिप्पणी-यहाँ कवि वाक्छल का प्रयोग करके दमयन्ती से यह कहलवा देता है कि वह नल से विवाह चाहती है, पर लज्जा के मारे कह नहीं सकती है। लड़की जो ठहरी! इसलिए श्लेषालंकार है / शब्दालंकारों में 'जातु' 'यातु', 'पथं 'कथं' में पहान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। वाचं तदीयां परिपोय मृद्वी मद्वीकया तुल्यरसां स हंसः। तस्याज तोषं परपुष्टघोषे घृणाञ्च वीणाक्वणिते वितेने // 60 //