________________ 94 नैषधीयचरिते ग्याकरण-विमक्तिः ( विमजनम् ) वि+म+क्तिन् (मावे ), विभज्यते प्रातिपदिक तत्तत्कर्तृत्वादि-रूपेषु ययेति करणे क्तिन् / व्यक्तिः व्यज्यते इति वि+अज् +क्तिन् ( कर्मणि ) / क्षमः शमते इति /क्षम् +अच् कर्तरि ) / ___ भनषाद-यदि सज्जन लोगों के विमाग ( गिनती ) का विचार किया जाय, तो वह नल व्यक्ति सबसे पहला ( सज्जन ) कहा जायगा, जो अपने शौर्य-कर्मों से अनझुकों शत्रुओं के देशों को (अपने ) अधिकार में करने को क्षमता रखता है ( ठीक उस तरह जैसे विमक्तियों ( 'सुपों' ) का ठीक-ठीक विचार करने पर प्रथमा ही ऐसी विभक्ति कहलाती है, जो सु-औ-जस् के विलासों ( विकारों ) से बहुत से प्रातिपदिक शन्दों को 'पद' बना देने की क्षमता रखती है ) / / 23 / / टिप्पणी-यहाँ कवि प्रस्तुत नल-रूप अर्थ बनाकर अप्रस्तुत व्याकरण-परक अर्थ को मी अमिव्यक्ति दे रहा है / यहाँ उसकी द्वयर्थक भाषा है। प्रकरण-वश अर्थ नल की तरफ लग जाने के बाद अप्रस्तुत व्याकरणपरक अर्थ नल से बिलकुल असम्बद्ध है, इसलिए परस्पर संगति बैठाने हेतु दोनों में औपम्य-भाव ( सादृश्य ) सम्बन्ध को कल्पना करनी पड़ेगी, अतः यहाँ उपमाध्वनि है-ऐसा मल्लिनाथ ने माना है। किन्तु दपणकार के अनुसार हम यहाँ समासोक्ति कह सकते हैं। उन्होंने साहित्यदर्पण में समासोक्ति को केवल जड़ के चेतनीकरण तक ही सीमित नहीं रखा है, अपितु प्रस्तुत लौकिक वस्तु पर शास्त्रीय वस्तु व्यवहार-समारोप में भी समासोक्ति मान रखी है / अतः यहाँ प्रस्तुत लौकिक नल-परक वस्तु पर अप्रस्तुत व्याकरणवस्तु-व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है / 'साधु' 'साध' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। राजा स यज्वा विबुधव्रजना कृत्वाध्वराज्योपमयेव राज्यम् / भुङ्क्ते श्रितश्रोत्रियसास्कृतश्रीः पूर्व त्वहो शेषमशेषमन्त्यम् // 24 // .. अन्धयः-यज्वा श्रित-श्रोत्रियसात्कृतश्रीः स राजा अध्वराज्योपमया एव राज्यम् विबुध-व्रजत्रा कृत्वा पूर्वम् तु शेषम् अन्त्यम् च अशेषम् भुक्ते-इति अहो। टीका-यज्वा विधिपूर्वकम् यशाम् कृतवान् ('यज्वा तु विधिनेष्टवान्' इत्यमरः ) अतएव श्रिताः स्वाश्रये स्थिताः ये श्रोत्रिया वेदपाठिनः ( कर्मधा०) ('श्रोत्रिय-च्छान्दसौ समौ' इत्यमरः) तेषाम् दानेन अधीनीकृता इति श्रोत्रियसास्कृता श्रीः लक्ष्मीः धनमित्यर्थः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी०) स प्रसिद्धो राजा नल: अध्वरेषु यशेषु हविर्दानरूपेण विबुधानां (देवतानाम् ) अधीनीकृतस्य आज्यस्य (स० तत्पु० ) उपमया सादृश्येन ( 10 तत्पु० ) एव राज्यं विबुधानां ( विदुषाम् ) व्रजस्य समूहस्य (10 तत्पु० ) दानदारा अधीनीकृत्येति विबुधवजत्रा कृत्वा पूर्व श्लोकक्रमे प्रथमनिर्दिष्टम् अर्थात् आज्यं तु शेषं हुताशे भुङ्क्ते मक्षयति, अन्त्यं पश्चान्निर्दिष्टं राज्यमित्यर्थः च अशेष भुङ्क्ते निविंशति इति अहो ! आश्चर्यम् / यत्खलु पूर्व भुज्यते तत्तु अशेषमेव भुज्यते न तु शेषम् , यच्चान्ते भुज्यते तत् शेषमेव भुज्यते, न त्वशेषमिति विरोधः, तत्परिहारस्तु अन्त्यं राज्यम् अशेषम् अखण्डं भुङ्क्ते इति / यथा वलो यज्ञेषु हवीरूपेयाज्यं विबुधेभ्यः ( देवताभ्यः ) प्रदाय हुतशेष भुङ्क्ते तथैव राज्यसम्पदं विबुधेभ्यः ( विद्वद्भयः ) दान-रूपेण प्रदायाखण्डं राज्यं भुङ्क्ते इति भावः // 24 //