________________ द्वितीयसनः ब्रह्ममुखौषः (कर्मधा० ) ब्रह्मणः मुखानाम् ओषः समूहः चत्वारि मुखानीत्यर्थः ( उमयत्र प० तत्पु०) तेन विनिता सम्जात-विघ्ना ( तृ० तत्पु०) विघ्नवतीत्यर्थः नवा नूतना स्वर्गक्रियाकेलिः (कर्मधा०) स्वर्गस्य क्रिया सृष्टिः (10 तत्पु.) एव केलिः गोला ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (20 बी० ) गाधेः एतत्संशकस्य क्षत्रियविशेषस्य सुतेन पुत्रेण विश्वामित्रेणेत्यर्थः पूर्व पुरा सामि अर्धम् ('साम त्वध जुगुप्सने' इत्यमरः ) यथा स्यात्तथा घटिता निर्मिता ( पश्चात् ब्रह्मस्तवश्रवणानन्तरम् ) मुक्ता परित्यक्ता मन्दाकिनी स्वर्गङ्गा नु इत्र अनिलेन वायुना वायुकर्तृकैरिति यावत् आन्दोलनैः चालनैः (तृ० तत्पु०) दिवि आकाशे अखेलत् अक्रीडत् / गृहोपरि वायुना फर्फरायमाणा श्वेतपताका गगने विश्वामित्रार्धनिर्मिता मन्दाकिनीव प्रतीयते स्मेति भावः // 102 / / ग्याकरण-विनिता विघ्नः सञ्जातोऽस्या इति विघ्न+इतच् / सामिघटिता सामि घटिता 'सामि' 2 / 1 / 27 से समाप्त हुआ। आन्दोलः आन्दोल+घञ् ( भावे ) / अनुवाद-जिस ( नगरी ) के राजमवन की लता-जैसी श्वेत रेशमी पताका निरन्तर वेद-पाठ से पवित्र बनी जिह्वाओं से प्रकट हुई बहुत-सी स्तुतियों में लगे ब्रह्मा के मुख-समूह द्वारा विनित हुई नव सृष्टिनिर्माण-लीला वाले गाधिपुत्र-विश्वामित्र-को पहले आधी बनाई और ( बाद को) छोड़ दो गई आकाश-गङ्गा-जैसी वायु के झोकों से आकाश में खेलती प्रतीत होती थी॥१०२ / / टिप्पणी-पुराणों में अयोध्यानरेश त्रिशंकु का उपाख्यान आता है कि उनका अपनी देह से असीम अनुराग था। इस कारण वे चाहते थे कि सदेह ही स्वर्ग जाऊँ। एतदर्थ उन्होंने कुरु-गुरु वसिष्ठ से यज्ञ करना चाहा, किन्तु उन्होंने इनकार कर दिया। फिर वे विश्वामित्र के पास गए, जिन्होंने उन्हें सदेह स्वर्ग मेज देना स्वीकार कर लिया। यश-समाप्ति पर त्रिशंकु जब स्वर्ग जाने लगे तो स्वर्ग में सदेह व्यक्ति को आता देख तहलका मच गया। सभी देवताओं ने त्रिशंकु को नीचे धकेल दिया। इस पर विश्वामित्र बड़े कुपित हुए। फलतः उन्होंने तपोबल से एक नया ही स्वर्गनिर्माण प्रारम्भ कर दिया। अपनी सृष्टि के विरुद्ध नयी सृष्टि बनती देख ब्रह्मा बड़े चिन्तित हुए / उन्होंने चारों मुखों से विश्वामित्र की स्तुति की और उनसे अनुरोध किया कि वे ऐसा करके सृष्टिमर्यादा भंग न करें। तब जाकर कहीं विश्वामित्र ने अपना नव निर्माण छोड़ा। यहाँ पताका पर सामिघटित आकाशगङ्गा की कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है, जिसके साथ 'दुकूलवल्लिरिव' इस लुप्तोपमा की संसृष्टि है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्राम है। सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन-नियम के अनुसार कवि ने यहाँ शार्दूलविक्रीडित वृत्त रखा है, जिसका लक्षण यह है :-'सूर्याश्वैयदि मः सजो सततगा: शार्दूलविक्रीडितम्' अर्थात् सूर्य के सात घोड़ों की तरह जिसमें सात गण-मगण, सगण, जगण, सगण, तगण, तगप्प और गुरु-हों, वह शार्दूलविक्रीडित होता है। यदतिविमलनीलवेश्मरश्मिभ्रमरितमाः शुचिसौधवस्त्रवल्लिः / अलमत शमनस्वसुशिशुस्वं दिवसकरातले चला लुठन्ती // 103 // अन्वयः-यदति माः शुक्-िसौष-वस्त्र-वल्लिः दिवसकरातले चला लुठन्तो शमन स्वसः शिशुत्वम् अलमत।