________________ द्वितीयसर्ग : विधुकरपरिरम्मादात्तनिष्यन्दपूर्ण शशिदृषदुपक्लुप्तरालवारुतरूणाम् / विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण ग्यरचि स हृतचित्तस्तत्र मेमोवनेन // 106 // अन्वयः-तत्र शशि-दृषदुपक्लुप्तः ( अत एव ) विधु-कर-परिरम्मात् आत्त-निष्यन्द-पूर्णै: तरूपाम् आलवालैः विफ.. वेष, भैमीवनेन स हत-चित्तः व्यरचि।। टीका-तत्र कुण्डिननगयाँ शशिनः चन्द्रस्य या दृषदः प्रस्तराः चन्द्रकान्तमषय इत्यर्थः तामिः उपक्लुप्तैः रचितैः ( त. तत्पु० ) ( अतएव ) विधोः शशिनः करैः किरणैः (प.तरपु०) परिरम्मात् माश्लेषात सम्पर्कादित्यर्थः (त. तत्पु० ) आत्तो गृहोतो यो निष्यन्दो जलस्रवः (कर्मधा० ) तेन पूर्णैः मरितैः ( त० तत्पु० ) तरूण वृक्षाणाम् आलवालैः भावालेः जलधारैरिति यावत् विफलितं विफलीकृतं व्यर्थता नीतमिति यावत् जलसेक-प्रक्रियागौरवम् ( कर्मधा० ) जलेन सेकः सेचनम् ( तक तत्पु० ) तस्य प्रक्रियायाः प्रकारस्य गौरवम् ( उमयत्र प० तत्पु० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी०) भैम्या दमयन्त्या वनेन उद्यानेन (10 तत्पु० ) स हंसः हृतम् भाकृष्टं चित्तं हृदयं यस्य तथाभूतः (10 वी०) भ्यरचि कृतः। जलसेकमनपेक्ष्यैव दमयन्तीवन रात्री चन्दसम्पर्कात् स्यन्दमानचन्द्रकान्तजलपरिपूर्णालवालं निरीक्ष्य हंसो हृत-हृदयो बभूवेति भावः // 106 // म्याकरण-प्रात्त आ+ दा+क्तः (कर्मणि ) / निष्यन्दः नि+/स्यन्द+घञ् (मावे) स को ष। विफलित विफलं करोतीति विफल+Vs+श, रिङ् , इय+टाप् / व्यरचि वि+ Vरच्+लुङ् ( कर्मवाच्य ) / भनुवाद-उस ( नगरी ) में चन्द्रकान्त मणियों से निर्मित, ( अत एव ) चन्द्रमा की किरणों के सम्पर्क से चूते हुए जल के ग्रहण से भरपूर बने वृत्तों के आवलों द्वारा ( मालियों का ) जलसिञ्चन क्रिया का भार विलित किये दमयन्ती के उपवन ने हंस का मन हर लिया // 106 // टिप्पणी-यहाँ चन्द्रकान्तमणिनिष्यन्द का आलवालों के साथ सम्बन्ध न होने पर मी सम्बन्ध बताने में असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति तथा अत्यधिक सम्पदा के वर्णन में उदात्त-इन दोनों का संकर है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। यहाँ से लेकर 106 श्लोक तक मालिनी वृत्त चक पड़ा है, जिसका लक्षण यह है-'ननमयययुतेयं मालिनी मोगिलोकैः' अर्थात् जिसमें न, न, म, य, य गण हो और 8 तथा 7 में यति हो, वह मालिनी होती है। अथ कनकपतत्रस्तन तां राजपुत्री __ सदसि सदशमासां विस्फुरन्तीं सखीनाम् / उडुपरिषदि मध्यस्थायिशीतांशुलेखा नुकरणपटुलक्ष्मीमक्षिलक्षीचकार // 107 // अन्वयः-अथ कनकपतत्रः तत्र सदशमासाम् सखीनां सदसि विस्फुरन्तीम् उडु-परिषदि मन्बस्थायि-शीतांशु-लेखानुकरण-पटुरुक्ष्मीम् ताम् राजपुत्रीम् अमिललोचकार /