________________ नैषधीयचरिते ___टीका-वैदमी विदर्भदेशोद्भवराजकुमारी दमयन्तीत्यर्थः तस्या यः केलिशैलः क्रीडापर्वतकः ( 10 तत्पु. ) केरुये शैलः (च० तत्पु० ) तस्मिन् मरकतानां हरितमणीनां शिखरात् शृङ्गात् (10 तत्पु०) उत्थितः उद्गतः, अथ ब्रह्माण्डेन विश्वगोलकेन य आघातः संघट्टः (तृ० तत्पु० ) तेन मग्नो नष्टः (तृ० तरपु० ) स्यदजो वेगजो मदो गर्वः ( उभयत्र कर्मधा० ) येषां (व० वी० ) तेषां मावः तत्ता तया हिया सज्जया धृतं कृतमित्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) अवाङ्मुखत्वम् ( कर्मधा० ) अवाङ् नीचैः मुखं येषां (ब० वी० ) तेषां भावः तत्त्वं यैस्तथाभूतैः ( ब० वी० ) अतएव दिवि स्वगें उत्तानम् ऊर्ध्वमुखं यथा स्यात्तथा गच्छतीति तथोक्तायाः ( उपपद तत्पु० ) कस्याः सुराणां सुरभिः (10 तत्पु० ) तस्या देव-गव्या आस्यस्य मुखस्य देशं प्रदेशम् ( 10 तत्पु० ) गतानि प्राप्तानि अग्राणि अग्रभागाः (कर्मघा०) येषां तथाभूतैः ( 10 वी० ) अंशवः किरणा एव दर्माः कुशाः ( कर्मधा० ) तैः यस्या नगर्या गोग्रासस्य (10 तत्पु० ) गोभ्यो ग्रासः ( च० तत्पु०) व्रतं नियमः ( 10 तत्पु. ) एव सुकृतं पुण्यम् ( कर्मधा०) अविश्रान्तं निरन्तरं न उज्जृम्भते स्म वर्धते स्म अपितु सर्वस्या एवेति काकुः / कुण्डिनीपुर्या दमयन्तीक्रीडापर्वतकरय मरकतमणीनां हरित-किरपैः उच्चैः गत्वा ब्रह्माण्डस्यान्तःपटलेन संघटय पुननोचैः निवर्तमानैः घास-रूपेणोर्ध्वमुखीनां देवगवीनां मुखेषु पतद्भिः नित्यगोग्रासदानव्रतपुण्यकार्य भवति स्मेति भावः // 105 // म्याकरण-वैदर्भी विदर्भाणाम् इयमिति विदर्भ+प्रण+कोप / माघातः आ+हन्+ घन / स्यदज स्यदात् जायते इति स्यद+/जन् +डः। हो हो+क्विप् ( भावे ) उसका सर्वाप. हारी लोप / उत्तानगः उत्तान/गम् +ड+टाप् / अनुवाद-दमयन्ती के क्रीडा-पर्वत पर मरकत मप्पियों के अग्रभाग से उठी, ( बाद को) ब्रह्माण्ड ( की छत ) से टकराने से वेगामिमान भंग हो जाने के कारण लज्जा के मारे मुँह नीचे किये, ( अतएव ) स्वर्ग में ऊपर मुख किये जा रही किस दिव्य गौ ( कामधेनु ) के मुख में पड़ी नोकों वाली किरणों के रूप में कुशाओं द्वारा गोग्रासदान-व्रत-रूपी पण्य निरन्तर नहीं चलता रहता था ? टिप्पणी-वेद में लिखा हुआ है—'उत्ताना देवगवा वहन्ति' अर्थात् दिव्य गायों के मुंह हमेशा ऊपर रहते हैं। गायों का ग्रास देना महान् धर्म माना गया है। मरकत मपियों की हरी किरणे ऊपर-बहुत ऊपर जाकर ब्रह्माण्ड से टकराकर नीचे लौटती हुई स्वर्ग की गायों के ऊपर किए मुखों में पड़कर घास का काम दे देती यी और गो-ग्रासव्रत कुण्डिनपुरी में बराबर चलता रहता था। यहाँ किरणों के ब्रह्माण्ड से टकराने का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताने से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति, किरणों पर दर्भवारोप में रूपक तथा सम्पदाधिक्य-वर्णन में उदात्त है। विद्याधर ने उपमा बताई है, किन्तु 'अंशवो दर्भा इव' यो उपमा में अंशुओं का प्राधान्य रहने से उनका गोग्रास्वत से सम्बन्ध बैठाना कठिन हो जायगा। शब्दालंकारों में 'सुर' 'सुर' में यमक और अन्यत्र वृत्यनुमास है। छन्द यहाँ स्रग्धरा है जिसका लक्षण यह है :-- म्रभ्नानां त्रयेण त्रिमुनियुतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयम्' अर्थात् जिसमें म, र, म, न, य, व, य और सात-सात अक्षरों में तीन युतियाँ हों तो वह स्रग्धरा होती है /