________________ 64 द्वितीयसर्गः ग्याकरण-सौरमम् सुरमेः माव त सुरमि+अण्। मलीमसम् मल+ईमसः ( मतुबर्थ में निपातित / पणिता पणते इति पण+तृच ( कर्तरि ) / तुलयन्/तुल्+णिच् शतृ संशापूर्वक विधि के कारण गुणामाव / अवैत् अव+Vs+लङ्। भनवाद-जिस ( नगरी ) के बाजार में सुगन्धि के लोम में निश्चल बैठे हुए भ्रमर को कस्तूरी के साथ-साथ तौलता हुआ बनिया लोगों के हल्ले-गुल्ले के कारण गूंजते हुए भी भ्रमर को नहीं बान पाया // 92 // हिप्पणी-यहाँ काली कस्तूरी के साथ काले भ्रमर की एक-रूपता होने से सामान्य अलंकार है / सामान्यं गुणसामान्ये यत्र वस्त्वन्तरैकता' / ) गुप्पसाम्य से बनिये को भ्रमर में कस्तूरी की भ्रान्ति व्यङ्गय है। 'रवै' 'रवै' में यमक, 'पणे' 'पणि' तथा 'मलिं' 'मलो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। यहाँ निश्चल बैठे हुए भ्रमर को गूंजता हुआ कहना कवि की प्रौढोक्ति-मात्र समझिए, अन्यथा घूमता हुआ भ्रमर ही गूंजा करता है, बैठा हुआ नहीं। रविकान्तमयेन सेतुना सकलाहं ज्वलनाहितोष्मणा / शिशिरे निशि गच्छतां पुरा चरणौ यत्र धुनोति नो हिमम् // 13 // अन्वयः-यत्र सकलाहम् ज्वलनाहितोष्मणा रविकान्तमयेन सेतुना शिशिरे निशि गच्छताम् चरणौ हिमम् पुरा नो दुनोति / टीका-यत्र नगर्याम् सकलं समस्तं च तत् अहः दिवसः सकलाहः ( कर्मधा० ) तम् सकलदिनपर्यन्तम् ज्वलनेन तापेनेत्यर्थः आहितो जनितः ( तृ० तत्षु०) ऊष्मा औष्ण्यम् ( कमंधा० ) यत्र तथामतेन (ब० बी० ) रविकान्तमयेन सूर्यकान्तमणिमयेन सूर्यकान्तः बद्धेनेति यावत् सेतुना मार्गेण शिशिरे शिशिर तो निशि रात्री ( अपि) गच्छतां लोकानां चरणौ पादौ हिमं शीतं पुरा नो न दुनोति दुनोति स्म पोडयति स्मेत्यर्थः। दिवा ज्वलत् सूर्यकान्तबद्धोष्णीभूतमार्गेषु रात्रौ चलन्तो लोकाः शीतकाले शैत्यं नानुभवन्ति स्मेति मावः // 12 // न्याकरण-सकलाहम् समास में समासान्त टच पुल्लिगता और कालात्यन्त-संयोग में द्विः / ऊष्मा/ऊष ( परितापे ) मनिन् ( मावे ) / पुरा दुनोति पुरा-योगे भूते लट् / / अनुवाद-जिस ! नगरी में सारे दिन जलते रहने से गर्म सूर्यकान्त भणियों के फर्श वाले मार्गों में चलने वाले लोगों के पैरों को रात को ( भी ) शीत ऋतु में ठंड कष्ट नहीं दिया करती थी। 93 // टिप्पणी-यहाँ पूर्वार्ध में मार्गों से ऊष्मा का सम्बन्ध न होने पर भी सम्बन्ध बताया गया है, इसलिए असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति, उत्तराध में पैरों पर रंड का सम्बन्ध होते हुए भी असम्बन्ध बताने से सम्बन्धे असम्बन्धातिशयोक्ति, शीत की कार णभृत शीतऋतु होने पर भी शीतरूप कार्य के न होने से विशेषोक्ति, अतिरञ्जित सम्पदा-वर्णन से उदात्त--इन समी का संकर है। शब्दालंकार वृत्त्यनु. प्रास है। विधुदीधितिजेन यत्पथं पयसा नैषधशीलशीतलम् / शशिकान्तमयं तपागमे कजितीव्रस्तपति स्म नातपः // 94 //