________________ द्वितीयः सर्गः 44 येन तथाभून: / ब० वो० ) मन् , क्षणम् ऊर्ध्वम् उच्चम् यत् अयन गमनम् (कर्मधा० ) तेन दुर्विमावनः कठिनतया विभावयितुं द्रष्टुं शक्यः (त. तत्पु.) (क्षणम् ) अविततो विततौ सम्पवमानो कृताविति विततीकृती विस्तारितौ अतएव निश्चलौ स्थिरौ ( कर्मधा० ) छदौ पक्षी (कर्मधा०) यस्य तथामत(७० वी० ) सन् , क्षणम् आलोककानां दर्शकानां दत्तं कृतमित्यर्थः (10 तत्पु० ) कौतुकं कौतूहल म् ( कर्मधा० ) येन तथ भूतः (ब० वी० ) सन् ययौ जगाम // 68 // व्याकरण-पक्षतिः पक्षस्य मूलमिति पक्ष+तिः। चयनम् + ल्युट ( भावे ) / दुर्विमाधनः दुः दुःखेन विभावयितुं शक्य इति दुर् +वि+Vs+णिच् +युच् / छदः छदयनीति/ छद्+णिच् + अच् ( कर्तरि ) / श्रालोककः आलोकयतीति श्रा+/लोक्+ण्वुल् ( कर्तरि ) / अनुवाद-वह ( हंस ) क्षण भर डैनों को हिलाये, क्षणभर ऊंचे चले जाने से कठिनाई से देखने में आये, ( क्षण भर ) पंखों को फैलाकर निश्चल बने और क्षणभर दर्शकों को कुतुहल दिये चला गया / / 68 // हिप्पणी-यहाँ पक्षी का यथावत् स्वभाव वर्णन करने से स्वभावोक्ति अथवा जाति अलकार है। उसका हंस की अनेक क्रियाओं के साथ अन्वय होने से दीपक के स थ संकर है। शब्दोलकार वृत्त्यनुप्रास है। तनुदीधितिधारया रयादतया लोकविलाकनामसौ। छदहेम कषन्निवालसत्कषपाषाणनिभे नमःस्थले // 69 // अन्वयः-असौ लोक-विलोकनाम् गतया रयात् तनु-दीधिति धारया कष-पा' प-निमे नमस्तले छद हेम कषन् इव अलप्सत् / टीका-असौ हंसः लोकस्य दर्शक जनस्य त्रिलोकनां दर्शनं दृग्गोचरत्वमि त यावत् ( 10 तत्पु०) गतया प्राप्तया रयात् गमनस्य वेगात् वेगहेत'रुत्पन्नयेत्यर्थः तनोः शरीरस्य या दोधिति: दोप्तिः (प. तत्पु० ) तस्या धारया रेखया ( सुवर्ण-क्षे तन्वी सूक्ष्मा या दीधितिधारा तया ) कषणार्थ पाषापः उपल: कष-पाषाणः ( च० तत्पु० ) तन्निमे तत्तुल्ये (तृ० तत्पु० ) नमसः गगनस्य तले पृष्ठे (10 तत्पु०) छदस्य पक्षस्य हेम सुवर्ण (प० तत्पु० ) कषन घर्षन् इत्र अलसत् शोमते स्म, नीलाकाशे रयादुड्डीयमानस्य हसस्य स्वर्णल-शरीरेखा 'सुवर्ण शुद्धमशुद्ध वे'ति परीक्षितुं नीलनिकषोपलं कथ्यमाणा सुवर्ण-लेखेव प्रतीयते स्मेति भावः // 69 // व्याकरण-विलोकना वि+/लोक् +युच् +टाप् / दीधितिः दीधी + क्तिन् इट् इकारकोपश्च। कषः कषतोति कष् + अच् ( कर्तरि ) / अनुवाद-वह ( हंस ) लोगों के देखने में आई हुई. वेग कारण ( निज ) शरीर की ( सूक्ष्म ) कान्ति रेखा से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो ( वह ) कसौटी-सदृश गगन-नल पर ( अपने ) पंखों के सुवर्ण को रगड़ रहा हो ( यह जानने हेतु कि वह खरा है या नहीं ) // 6 // टिप्पणी-यहाँ नमस्तल की निकष-पाषाण से तुलना की गई है, अत: उपमा है, जो 'कषन्निव' इस स्प्रेक्षा का अंग बनी हुई है, इसलिए दोनों का अङ्गाङ्गिमाव संकर है। शब्दालंकारों में