________________ 49 व्याकरण-यन् /+शतृ / 'तच्छायम्' ('विभाषा सेना०' 2 / 4 / 25 ) से छाया शब्द को विकल्प से नपुंसकलिंग अन्यथा 'तच्छायाम्। वितीण वि+त+क्तः ( त को न, न कोप) स्वपथः पथिन् शब्द को ( 'ऋपरब्धूपथामानक्षे' 5 / 4 / 74 ) समासान्त / ददृशे दुश्+लिद् (कर्मवाच्य ) / अनुवाद-(गगन में ) जाते हुए उस ( हंस ) की भू पर ( पड़ी) छाया को देखकर तत्काल आकाश और दिशाओं में दृष्टि डाले हुए लोग बड़े वेग के कारण शीघ्र ही दृष्टि से ओझल हुए उसे देख ही नहीं पाते थे // 71 // टिप्पणी-यहाँ नहीं दिखाई देने का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। न वनं पथि शिश्रियेऽमुना क्वचिदप्युच्चतरदुचारुतम् / न सगोत्रजमन्ववादि वा गतिवेगग्रसरद्रुचा रुतम् // 72 // अन्वयः-गति-वेग-प्रसरद्-रुचा अमुना पथि क्वचित् अपि उच्चतर द्रुचारुतम् वनम् न शिश्रिये, न वा सगोत्रजम् रुतम् अन्ववादि / टीका-गतेः गमनस्य यो वेगः रयः (10 तत्पु० ) तेन प्रसरन्ती विस्तीर्यमाणा ( तृ० तत्पु०) रुक कान्ति ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) अमुना हंसेन पथि मागें क्वचित् अपि कस्मिन्नपि प्रदेशे विश्रमार्थम् अतिशयेन उच्चा इत्युच्चतरा (प्रादि तत्पु० ) ये द्रुवो वृक्षाः ( कर्मधा० ) ('पलाशी द्रु-द्रुमागमाः' इत्यमरः) तेषां चारुता रामणीयकम् (10 तत्पु०) यस्मिन तथाभूतम् (ब० वी०) वनं काननं न शिश्रिये समाश्रयत् अर्थात् मागें तेन कुत्रापि सुन्दर-वने विलम्बमयात् न विश्रान्तम् / वा अथवा गोत्रं वंशः तेन सहिता इति सगोत्राः (ब० वी० ) स्वजातीथा हंसा इत्यर्थः तेभ्यो जायते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) रुतं शब्दं न अन्ववादि अनूदितं समुत्तरितम् , यथा पक्षि-स्वमावो मवति / स्वजातीयैः सह सम्भाषणमपि न कृतम् विलम्बभयादेवेति भावः // 72 // __व्याकरण-शिश्रिये /श्रि+लिट् / रुक रुच् +क्विप ( भावे ) / रुतम् V+क्ता ( मावे ) / अन्ववादि अनु विद्+लुङ् ( कर्मणि ) / अनुवाद-चाल तेजी के कारण फैलती जा रही कान्ति वाला वह ( हंस ) कहीं भी ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से रमणीय बने वन में नहीं टिका अथवा न उसने अपनी जाति के पक्षियों ( हंसों ) को आवाज से आवाज़ मिलाई // 72 // टिप्पणी-यहाँ एक ही कारक 'अमुना' के साथ अनेक क्रियाओं का अन्वय होने से दीपक 'द्रुचारुतम्' 'द्रुचारुतम्' में यमक और उसके साथ पादान्तगत अन्त्यानुप्राप्त का एकवाचकानुप्रवेश संकर, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अथ मीमभुजेन पालिता नगरी मजुरसौ धराजिता / पतगस्य जगाम दृक्पथं हरशेलोपमसौधराजिता // 73 // अन्धयः-अथ धराजिता भीम-भुजेन पालिता, हर"रानिता, मन्जुः असो नगरी पतगस्य दृपयम् जगाम /