________________ 42 नषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ आधि पर नीरधित्व का आरोप होने से रूपक है, जिसका 'पोत इव' इस उपमा के साथ अङ्गाङ्गिभाव संकर है / 'वधौ' 'रधी' में 'अधौ' की तुक बनने से पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और उसका 'वधौ', 'विधि' से बनने वाले छेकानुपास के साथ एक वाचकानुप्रवेश संकर है, अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अथवा भवत: प्रवर्तना न कथं पिष्टमियं पिनष्टि नः / स्वत एव सतां परार्थता ग्रहणानां हि यथा यथार्थता // 61 // अन्वयः-अथवा नः श्यम् भवतः प्रवर्तना कथम् पिष्टम् न पिनष्टि ? हि सतां परार्थता स्वतः एव ( भवति ) यथा ग्रहणानां यथाथता ( स्वत: एव भवति ) / टीका-अथवा विकल्पान्तरे नोऽस्माकम् अस्मत्कर्तृका इयम् एषा भवतः तव भवत्कमिका प्रवर्तना प्रेरणा, मम कृते त्वमेवं कुविति कथनमित्यर्थः ५.थं कि पिष्टं चूष कृतम् न पिनष्टि चूर्णीकरोति ? पिष्टपेषणन्यायं न चरितार्थयति किम् अपि तु चरितार्थयत्येव / व्यर्थमस्तोत्यर्थः / हि यतः सतां सज्जनानां परस्यान्यस्य अर्थः कार्य हितमित्यर्थः (10 तत्सु० ) यस्य ( ब० वी० ) तस्य भावः तत्ता परोपकारितेत्यर्थः स्वतः स्वेच्छातः परप्रेरणां विनैवेति मावः भवतीति शेषः / यथा ग्रहणानां ज्ञानानां यथार्थता याथार्थ्य प्रामाण्यमिति यावत् स्वतः अन्यसाधनमनपेक्ष्यैव भवति / शानानां प्रामाण्यं यथा स्वतो भवति तथैव सज्जनानां परोपकारित्वं स्वतो भवतीत्यर्थः / मम त्वत्प्रेरणं व्यर्थमेवेति मावः // 61 // व्याकरण-प्रवर्तना प्र+/वृत्+पिच् +युच् ( भावे )+टाप् / ग्रहणानाम/ग्रह् + ण्युट् ( भावे ) / स्वतः स्व+तस् / अनुवाद-अथवा हमारा आपको (अपने काम में ) लगाना क्या पिष्ट-पेषण नहीं ? क्योंकि सज्जन लोगों में परोपकारिता इस तरह स्वतः हो होती है जैसे कि ज्ञानों में यथार्थता ( स्वतः ही हुआ करती है ) // 61 // टिप्पणी-ग्रहणानां स्वतो यथार्थता-यहाँ कवि अपना दार्शनिक निपुणता बताता हुआ मीमांसादर्शन की ओर संकेत कर रहा है / मीमांसा के अनुसार हमें जो कुळ मी ग्रहण अथवा शान होता है, वह स्वतः ( अपने आप में ) हो प्रमाण होता है। उसमें प्रामाण्याधान हेतु अन्य को अपेक्षा नहीं रहती। जहाँ शान गलत होता है, वहाँ वे ज्ञान के प्रामाण्य को अज्ञान द्वारा दबाया गया मानत हैं। इस सिद्धान्त के ठीक विपरीत न्याय बालों का कहना है कि ज्ञान स्वयं अपने में न प्रमाण है, न अप्रमाण / उनका प्रामाण्य अथवा अप्रमाण्य परतः होता है ('प्रमात्वं न स्वतो ग्राह्यं संशयानुपपत्तिः'। कारिकावलिः)। ज्ञान के बाद यदि हमारी प्रवृत्ति सफल होती है, तो शान में प्रामाण्य और असफल होने पर अप्रामाण्य होता है / शान-प्रामाण्य के इस स्वतस्त्व और परतरत्व को लेकर दर्शनों में बड़ा विवाद चलता है जिसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जाना चाहेंगे। यहाँ विद्याधर ने निदर्शना और दृष्टान्त माना है। निदर्शना तो 'मेरा तुम्हें अपने काम में लगाना पिष्ट को पीसना है' यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव होने से ठीक ही है, किन्तु दृष्टान्त हमारी समझ में नहीं आता। हाँ, पूर्वार्धगत विशेष बात का 'सतो स्वत एव परार्थता' इस सामान्य वाक्य से समर्थन