Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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अभिनन्दन के पुण्य पलों में ।
___-श्री गणेश मुनि शास्त्री __ धर्म का स्वरूप मनुष्य के विचारों और आचारों से जाना/पहचाना जाता है। विचारों की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा को अपनी आत्मा के समान समझना। 'आत्मवत सर्वभूतेषु' की भावना रखना, यही आत्मधर्म है । समता, सहिष्णुता, सेवा, सहयोग, साधना, दया, प्रेम, भाईचारा और भलाई के विचारों ने ही समाज को जीवित रख छोड़ा है । यदि ये गुण न होते तो न समाज होता और न हम आज इस अवस्था तक पहुँच पाते।
दूसरा पक्ष आचार का है। केवल विचारों से हो नहीं किन्तु आचार में भी उसका अवतरण होना आवश्यक है । धर्म की बातें बनाना, उपदेश देना, भाषण देना, पुस्तकें लिखना एक अलग बात है और उसे अपने जीवन में ढालना एक अलग बात है । आज इस वैज्ञानिक और भौतिकता के युग में जहाँ कदम-कदम पर भोगोपभोग सामग्री सहज उपलब्ध होते हुए भी आत्म-साधक, संयम के महापथ पर अविकल रूप से अपने कदम बढ़ा रहे हैं। यह धर्म का आचार पक्ष है । कहा भी है-आचारः प्रथमो धर्मः अर्थात् आचार ही मनुष्य का प्रथम धर्म है।
जीवन में विचार और आचार की पवित्र गंगा प्रवाहित होती है तो सहज ही आनन्द की अनुभूति होने लगती है । सद्गुण जीवन से सौरभ महकने लगता है। अतएव समाज में अच्छाइयों का सम्मान आदर हो। आचार प्रतिष्ठित हो । सद्बुद्धि और समता का साम्राज्य स्थापित हो और जो इस तरफ अपने कदम बढ़ा रहा हो उन्हें प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाना, यह समाज का प्रथम कर्तव्य है। । इससे अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है तथा जिनशासन की प्रभावना में अभिवद्धि होती है।
सादा जीवन उच्च विचार वाली ऋजुमना परम विदुषी साध्वीरत्न श्री कुसुमवतीजी म० के विचार और आचार की पवित्रता के द्वारा जनता के लिए वे श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई हैं । आपका संयमी जीवन सहजता/स्वाभाविकता/सरलता/सहिष्णुता और सुमधुरता की महक से महक रहा है। आपके अन्तस्तल से प्रवाहित होने वाली अध्यात्म भावधारा जन-मन को सहज ही आकर्षित/प्रतिबुद्ध करती है । म
बाल्यावस्था में ही दीक्षिता होकर साध्वोचित सद्गुणों के कारण महासतीजी म० ने आशातीत आध्यात्मिक ऊंचाइयां अजित की हैं। आपके उपपात में बैठने वाला सहज ही आनन्दानुभव करता है। आपकी साधना से सनी-रसपगी चिन्तनधारा का रसपान करने वाला साधक अनायास आत्मविकास के पथ पर अग्रसर होता है। मिश्री-से मीठे/मधुर बोल सुनते-सुनते श्रोताओं के मन-कमल खिल उठते हैं।
__ समता विभूति महासतीजी की ललित-लेखनी समय-समय पर गद्य और पद्य में शक्तिशाली स्रोत के रूप में अवतरित होती है जिसकी रसानुभूति पाठकगण करते रहते हैं । महामना महासतीजी म० का मंगलमय/प्रेरक मार्गदर्शन साधक/साधिकाओं को प्राप्त होता रहता है जिससे उनमें बल/शक्ति/उत्साह का संवर्धन होता है।
समता साधिका, संयम आराधिका परम विदुषी महासती श्री कुसुमवतीजी म० के दीक्षा अर्ध शताब्दी के पुण्यपलों में अभिनन्दन समारोह का शुभ आयोजन एवं कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन से मेरा हृदय आनन्दविभोर है। मैं महासतीजी म. के प्रति उनके अनन्त भविष्य को सुखद-मंगलकामना करता हूँ इसी आशा/विश्वास के साथ।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
5. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ C
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