Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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वद्धि
के अभेद' को, और वेदान्त आदि दर्शनों में 'अविद्या' किसी न किसी रूप में, आत्मा के ऋमिक-विकास को, संसार के कारण रूप में बतलाया गया है । ये का विचार पाया जाना स्वाभाविक है। क्योंकि सभी शाब्दिक-भेद से राग-द्वष के ही अपर नाम विकास की प्रक्रिया, उत्तरोत्तर अनुक्र र हैं। इन राग-द्वेषों के उन्मूलक साधन ही मोक्ष के होती है । सुदीर्घ मार्ग को क्रमिक पादन्यास से ही कारण हैं।
पार किया जाना शक्य है। इसी दृष्टि से, विश्व के 7 इसी दृष्टि से, जैन-शास्त्रों में मोक्ष-प्राप्ति के प्राचीनतम, तीन दर्शनों-जैन, वैदिक एवं बौद्ध में, I CL तीन साधन (समुदित) बताये हैं-सम्यग्दर्शन, उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं-कहीं 'ज्ञान' जैनदर्शन में 'गुणस्थान' नाम से, वैदिक दर्शन में और 'क्रिया' को मोक्ष का साधन कहा है। ऐसे 'भूमिका' नाम से, और बौद्ध-दर्शन में 'अवस्था' | स्थानों पर. 'दर्शन'को 'ज्ञान' का विशेषण समझकर उसे ज्ञान में गभित कर लेते हैं। इसी बात को यद्यपि, आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक वैदिक-दर्शनों में 'कर्म', 'ज्ञान', 'योग' और 'भक्ति' विकास का दिग्दर्शन कराने के गुणस्थान' के इन चार रूपों में कहा है। लेकिन, संक्षेप और नाम से जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन जैनदर्शन में पर विस्तार अथवा शब्द-भिन्नता के अतिरिक्त आशय किया गया है, वैसा, सुनियोजित. क्रमबद्ध एवं 12 में अन्तर नहीं है । जैनदर्शन में जिसे 'सम्यक्चारित्र' स्पष्ट विचार, अन्य दर्शनों में नहीं है । तथापि, कहा है, उसमें 'कर्म' और 'योग' दोनों का समावेश वैदिक और बौद्ध दर्शनों के कथनों की, जैनदर्शन के हो जाता है। क्योंकि 'कर्म' और 'योग' के जो साथ आंशिक समानता है। इसीलिए, गुणस्थानों कार्य हैं, उन 'मनोनिग्रह', 'इन्द्रिय जय', 'चित्त शुद्धि' का विचार करने से पूर्व, वैदिक और बौद्धदर्शन एवं 'समभाव' का तथा उनके लिए किये जाने वाले के विचारों का अध्ययन-संकेत भर यहाँ करना उपायों का भी, 'सम्यक्चारित्र' के क्रिया रूप होने उचित है। से, उसमें समावेश हो जाता है। 'मनोनिग्रह' वैदिक दर्शनों में आत्मा की भूमिकाएं-वैदिक 'इन्द्रिय जय' आदि 'कर्ममार्ग' है । 'चित्त शुद्धि' दर्शन के पातंजल-'योगसूत्र' में और 'योगवाशिष्ठ
और उसके लिए की जाने वाली सत्प्रवृत्ति 'योग- में भी, आध्यात्मिक भूमिकाओं पर विचार किया मार्ग' है । सम्यग्दर्शन 'भक्तिमार्ग' है । क्योंकि 'भक्ति'
गया है। पातंजल योगसूत्र में इन भूमिकाओं के में 'श्रद्धा' का अंश प्रधान है और 'सम्यग
नाम-मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारदर्शन' श्रद्धारूप ही है। सम्यग्ज्ञान 'ज्ञानमार्ग' रूप
शेषा उल्लिखित हैं। जबकि योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान' ही है ।
एवं 'अज्ञान' नाम के दोनों विभागों के अन्तर्गत इस प्रकार से, सभी दर्शनों में, मुक्ति-कारणों सात-सात भूमिकाएँ, कुल चौदह भूमिकाएँ उल्लि| के प्रति एकरूपता है । इन कारणों का अभ्यास खित हैं। इनके वर्णन के प्रसंग में, ऐसी बहत-सी आचरण करने से जीव 'मुक्त' होता है।
बातों के संकेत हैं, जिनकी समानता, जैनदर्शनगुणस्थान/भूमिका/अवस्था-जिन आस्तिक सम्मत अभिप्रायों के साथ पर्याप्त मिलती-जुलती दर्शनों में संसार और मुक्ति के कारणों के प्रति है। उदाहरण के लिए, जैन-शास्त्रों में 'मिथ्यामतैक्य है, उन दर्शनों में आत्मा, उसका पुनर्जन्म, दृष्टि' या 'बहिरात्मा' के रूप में, अज्ञानी जीव का उसकी विकासशीलता तथा मोक्षयोग्यता के साथ जो लक्षण बतलाया गया है, वही लक्षण, योग
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आत्मधिया समुपात कायादिः कीयं तेऽत्र बहिरात्मा। -योगशास्त्र, प्रकाश-१२
SH २५०
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ )
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