Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
ऐसा प्रतीत होता है,विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित वह प्राचीनतम साहित्य है, जिसका न केवल जैन वे बोलियाँ प्राचीन प्राकृतें रही हों, जिनका लोग धर्म एवं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की व्यवहार करते थे। उन्हीं के आधार पर परिष्कार- दृष्टि से ही महत्व है, वरन तत्कालीन भारत के पूर्वक छन्दस् या वैदिक संस्कृत का स्वरूप निर्मित लोक-जीवन, समाज, रीति-नीति, व्यापार, कृषि, हुआ हो।
प्रशासन, न्याय, व्यवस्था, भोजन, वस्त्र आदि यद्यपि यह अब तक विवाद का विषय रहा है
जीवन के सभी अपरिहार्य पक्षों पर मैं । कि संस्कृत तथा प्राकृत में किसे प्राचीन माना जाये विशद प्रकाश डालता है।
पर प्राकृत की प्रकृति देखते ऐसा कहा जाना असंगत दिगम्बर परम्परा का प्राचीन साहित्य शौरसेनी नहीं होगा कि छन्दस् के काल में भी जन-व्यवहार्य में है। शौरसेनी का भारत के पश्चिमी भाग में भाषा के रूप में उसका अस्तित्व रहा है। अतः प्रचलन था। षट्खण्डागम के रूप में शौरसेनी में उसकी प्राचीनता छन्दस् से परवर्ती कैसे हो सकती जो साहित्य हमें उपलब्ध है, वह निश्चय ही कर्म
सिद्धान्त पर विश्व के दर्शनों में अपना अप्रतिम भगवान महावीर एवं बुद्ध के समय में और स्थान लय हा आगे भी प्रायः समग्र उत्तर भारत में मागधी, अर्द्ध धर्म-सिद्धान्तों के निरूपण से संपृक्त होने के मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची आदि का जन- कारण जैन परम्परा का प्राकृत के साथ जो तादाभाषाओं के रूप में अव्याबाध प्रचलन रहा है। त्म्य जुड़ा, वह आगे भी अनवरत गतिशील रहा। महावीर द्वारा अपने उपदेशों के माध्यम के रूप में यह भी ज्ञातव्य है, अपने प्रचलन-काल में अर्द्ध मागधी का स्वीकार तथा बुद्ध द्वारा मागधी प्राकृत की व्यापकता केवल जैनों तक ही सीमित (पालि) का स्वीकार यह सिद्ध करता है। नहीं रही। प्राकृत जन-जन की भाषा थी। संस्कृत
समवायांग सूत्र, आचारांग चूणि, दशवकालिक नाटकों में जहाँ शिष्ट-विशिष्ट पात्रों के लिए वृत्ति आदि में इस आशय के उल्लेख हैं कि तीर्थंकर संस्कृत का प्रयोग हुआ है, वहाँ लोकजनीन पात्रों अर्द्धमागधी में धर्म का आख्यान करते हैं।1 के लिए, जिनमें व्यापारी, किसान, मजदूर, भृत्य, __फलतः प्राचीनतम श्वेताम्बर जैन वाड मय जो स्त्रियाँ, बालक आदि का समावेश है, विभिन्न द्वादशांगी के रूप में विश्र त है, उसमें से ग्यारह प्राकृतों का प्रयोग हुआ है। उससे प्राकृत की सर्वअंग हमें अर्द्धमागधी में प्राप्त हैं। बारहवाँ अंग जन भोग्यता सहज ही सिद्ध होती है । दृष्टिवाद विच्छिन्न माना जाता है । अंगों के आधार आगे चलकर साहित्यिक भाषा के रूप में महापर उपांग, छेद, मूल, आवश्यक, प्रकीर्णक आदि के राष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ, जिसमें साहित्य की ए रूप में विपुल साहित्य अर्द्धमागधी में ही सजित विभिन्न विधाओं में रचना हुई। हुआ।
इस सन्दर्भ में आगे बढ़ते हुए हम आ० हरिभद्र विनय पिटक, सुत्त पिटक, अभिधम्म पिटक सूरि के काल में प्रविष्ट होते हैं। यद्यपि वह तथा तत्परवर्ती बौद्ध साहित्य पालि में रचित साहित्य के क्षेत्र में लौकिक संस्कृत (Classical
Sanskrit) का उत्कर्षकाल था, दर्शन, न्याय, व्या___ अर्द्धमागधी आगम एवं बौद्ध पिटक भारत का करण, काव्य आदि पर संस्कृत में लिखने को लेखक/403
हुआ।
१. (क) समवायांग सूत्र ३४. २२, २३
(ख) दशवकालिक वृत्ति पृ. २२३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
४२५
Jhin Education International
Orpivate spersonalise only
www.jainelibrary.org