Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जीवन को सफल बनाना है
(तर्ज - जय बोलो.....)
अब गीत प्रभु के गाना है। जीवन को सफल बनाना है।
प्रभु नाम ही तारणहारा है भव्यों का ये ही सहारा है प्रभु चरण में मन को लगाना है....
झूठी काया झूठी माया क्यों व्यर्थ ही इसमें भरमाया नहीं इसमें अब तो लुभाना है"""
मतलब के सब रिश्ते नाते अवसर पर काम नहीं आते इन्हें छोड़ प्रभु को ध्याना है.
सुबह शाम प्रभु का नाम रटे पापों के बन्धन दूर हटे फिर 'कुसुम' मुक्ति को पाना है
भजन
सप्तम खण्ड : विचार - मन्थन
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अनुकम्पा
( तर्ज - चुप-चुप खड़े हो )
जीवन का सुधार करो, दया दिल धार है होवे बेड़ा पार है जी २.... जीवन का उत्थान और दूर हो अन्धकार है होवे बेड़ा पार है जी २...
भव सिन्धु पार करने की यह साधना 'अनुकम्पा' करना यह सच्ची आराधना तप, जप, साधना का, बस यही सार है "" सब धर्मों का सार, यही दया धर्म है अपनाया जिसने भी नष्ट हुए कर्म हैं कहा सब ज्ञानियों ने, यही मुक्ति द्वार है"
दुखियों को देख करुणा आती नहीं जिसको शास्त्रकारों ने बताया अभवी ही उसको होती नहीं मुक्ति, करे यतन हजार है..." चाहो कल्याण यदि दया भाव धार लो दुख दूर कर सबके, जीवन सुधार लो कहती 'कुसुम' होवे सदा जय-जयकार है....
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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