Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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रहो।
त्याग ही अहिंसा है । अर्थात् शब्द का रूप है-अ केवल कुछ संयम की हो अपेक्षा इसमें रहती है । यह मा
+हिंसा। शब्द-रचना की दृष्टि से भले ही यह दुष्कर नहीं, श्रमासाध्य तो कदापि नहीं होता। विवेचन तर्कसंगत लगता हो, किन्तु इससे जैनाचार वह मनोवृत्ति मनुष्य को अकर्मण्य बना देती है। की व्यापक एवं सूक्ष्म अहिंसा का स्वरूप उजागर वह कुछ भी करने से कतराने लगता है। यह भी भय यू नहीं हो पाता। वस्तुतः अहिंसा का स्वरूप इसकी रहता है कि केवल निषेधमूलक अहिंसा का निर्वाह
अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है । निषेधात्मक दृष्टि- करने वाला व्यक्ति एकान्त-सेवी एवं जगत से - कोण तो बड़ा सीमित है कि किसी को कष्ट मत तटस्थ होकर मानवेतर प्राणी की भांति जीवनपहेचाओ, जबकि अहिंसा की विशाल परिधि में यह यापन करने लग जायगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति || भी प्राधान्य के साथ सम्मिलित किया जाता है कि के जीवन को अहिंसा की कसौटी पर कसना भी सभी जीवों के लिए यथासम्भव रूप में सुख के कठिन हो जायगा। किसी भी अहिंसक का गौरव कारण बनो । अर्थात् अहिंसा का सिद्धान्त न केवल तो इसमें निहित रहता है कि वह ऐसे वातावरण निषेधमूलक, अपितु विधियुक्त भी है। अहिंसा में भी रहे, जिसमें हिंसायुक्त कर्मों की प्रेरणा निवृत्ति (न करने) की प्रेरणा ही देती है-ऐसा मिलती हो, फिर भी उससे प्रभावित हुए बिना वह विचार भ्रामक एवं अपूर्ण है। इसमें प्रवृत्ति का पूर्णतः अहिंसक ही बना रहे । पक्ष भी है कि सभी के सुख के लिए कुछ करते इस प्रकार अहिंसा को इसकी व्यापक भावभूमि
के साथ समझना ही समीचीन है एवं उसी व्यापक ___ इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि स्वयं रूप में उसका आचरण ही वास्तव में किसी व्यक्ति किसी के प्राणों की हानि नहीं करना (निवृत्ति या को अहिंसक होने का गौरव प्रदान कर सकता है। निषेध) तो अहिंसा है ही, किन्तु जब किसी के प्रवृत्तिमूलक अहिंसा से ही व्यक्ति-मानस की सच्ची प्राणों को किसी अन्य के कार्य से हानि का संकट हितैषिता एवं बन्धुत्व का परिचय मिलता है और ||
हो, तब भी अहिंसक व्यक्ति का कुछ दायित्व बनता यही वह पक्का आधार है, जिससे किसी का में है। उसे चाहिये कि संकटग्रस्त प्राणियों की रक्षा अहिंसापूर्ण आचार पहचाना जा सकता है। यह
करे । यह रक्षा करना प्रवृत्ति है, विधि है । इसके प्रवृत्ति मूलक पक्ष अहिंसा की गरिमा को न केवल अभाव में अहिंसा का स्वरूप मर्यादित, सीमित विकसित करता है, अपितु यह उसका निर्माता भी A और अपूर्ण ही रहेगा। अस्तु न मारने मात्र में ही है। कारण यह है कि अहिंसा को जैनाचार में नहीं, अपितु रक्षा भी करने में पूर्ण अहिंसा का केवल निषेधमूलक स्वीकार ही नहीं किया वास्तविक स्वरूप निखरता है । यहाँ यह तथ्य भी गया है। विशेषतः ध्यातव्य है कि निवृत्ति अथवा निषेध
अहिंसा की कसौटी । अकेला जिस प्रकार अहिंसा का समग्र स्वरूप नहीं अहिंसा का मूलतत्त्व जब प्राणिमात्र के लिए है-उसी प्रकार प्रवृत्ति या विधि अकेली भी सुख का कारण बने रहना है-किसी भी प्राणी का अहिंसा के समग्र स्वरूप को व्यक्त करने में असमर्थ घात न करना है, तो यह प्रश्न उभर आता है कि
रहती है। वस्तुतः निषेध एवं विधि दोनों पक्ष पर- क्या किसी के लिए इस प्रकार का अहिंसात्मक * स्पर पूरक हैं और दोनों मिलकर ही अहिंसा को आचरण अपने समग्ररूप में सम्भव है ? जीवन की विराट भाव भूमि का निर्माण कर पाते हैं । केवल नाना प्रवृत्तियों और कर्मों में ऐसे अगणित प्रसंग निषेधात्मक रूप में अहिंसा का निर्वाह कोई कठिन बन जाते हैं, जब व्यक्ति अन्य प्राणियों के लिए | कार्य नहीं होता। 'कुछ' नहीं करना तो सुगम है, कष्ट का कारण, यहां तक कि प्राणहंता बन जाता
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५७१
does 68 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ।
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