Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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कर्ता द्वारा किया नहीं गया है। भावहिंसा और आज विश्वभर में समस्त नैतिकताएँ विघटित ॥ प्रमाद अवस्था के अभाव में यदि किसी प्राणी की होती चली जा रही हैं, वे व्यवहार-क्षेत्र से निष्का- का
हिंसा हो गयी है, तो वह पाप की परिधि से परे है, सित होकर मात्र पठन-पाठन की विषय रह गयी । केवल द्रव्यहिंसा है। आचार्य भद्रबाहु का कथन इस हैं । यदि यही क्रम निरन्तरित रहा, तो सम्भवतः सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है
नैतिकताएँ मात्र पुस्तकों में ही विद्यमान रह "अपने नियमों के साथ यदि कोई साधक चलने जायेंगी। कदाचित् उनकी ओर ध्यान देने का श्रम के लिये विवेकपूर्वक पाँव उठाये, फिर भी यदि भी कोई नहीं करेगा । अहिंसामार्ग भी इसका अपकोई जीव पाँवों तले आकर नष्ट हो जाय, तो वाद नहीं है, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि नैतिक- 12 साधक को इसका पाप नहीं होगा। कारण यह है ताओं की उपेक्षा ने मनुष्य को मानवतारहित बना कि साधक की भावना निर्मल थी, वह अपने नियमों दिया है, उस पर अपार दुःख-घटाएं मंडरा रही हैं में पूर्णतः सजग था।"
और आतंक का बोलबाला हो रहा है। यदि TO सारांश यह है कि अहिंसा का निर्वाह तभी मनुष्य अहसा को दृढ़तापूर्वक अपना ले तो संसार सभव है जब हम भावहिंसा से बचते रहें। भाव का रूप ही परिवर्तित हो जायेगा। घृणा, द्वेष, ID हिंसा अकेली ही पाप के लिए पर्याप्त है। द्रव्य
पर-अहित, लोभ, मोह आदि विकार अहिंसा के 102 हिसा भी पाप तभी बनेगी जब वह केवल' द्रव्य- अपनाव से नष्ट हो जायेंगे और सर्वत्र सुख-शांति हिंसा न रहकर भावहिंसा के परिणाम रूप में का साम्राज्य हो जायेगा । व्यक्ति अहिंसा से अपना होगी। भावहिंसा और द्रव्यहिंसा के आधार पर
भी और जगत् का भी कल्याण करेगा । आवश्यकता हिंसा को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जाता है
___ इसी बात की है कि मनुष्य अपने में अहिंसा के
प्रति आस्था का भाव जागृत करे । अहिंसा का जो ! (१) भावरूप में और द्रव्यरूप में- जहाँ हिंसा का विराट रूप है-वह व्यवहार्य है, उसे अपनाया जा कुमनोभाव भी हो और बाह्यरूप में भी हिंसा की ।
सकता है और उसके सुपरिणाम सुनिश्चित हैंजाय । इस स्थिति में हिंसा का वास्तविक और
न स्थिति में हिसा का वास्तविक और यह भाव जब तक मनुष्य के मन में सबल नहीं घोर रूप होता है।
होगा, वह अहिंसा को कोरा सिद्धान्त मानता (२) भावरूप में हिंसा किन्तु द्रव्यरूप में नहीं रहेगा और इस सुख की कुञ्जी से दूर पड़ा || a कुमनोभाव या कषाय तो हो, किन्तु उसकी क्रिया- रहेगा।
न्विति किन्हीं कारणों से संभव न हो पाय । यह भी A हिंसा ही है, जिससे मनुष्य का अपना ही अहित
वस्तुतः अहिंसा को अपनाने के मार्ग में कोई ५ होता है।
जटिलता नहीं है । आत्म-नियन्त्रण या संयम से यह 10
मार्ग सुगम हो जाता है । अहिंसा के सहायक भावों (३) भावरूप में नहीं किन्तु द्रव्यरूप में हिंसा
को सबल बनाना और विरोधी भावों की उपेक्षा ___ जहाँ हिंसा तो हो गयी हो, किन्तु कर्ता का प्रमाद
करना ही एक प्रकार से यह संयम है। जीव मैत्री, ॥ या कषाय उसके पीछे नहीं रहा हो। वास्तव में
करुणा, पर-गुण-आदर, माध्यस्थ (विपरीत वृत्ति यह हिंसा नहीं मानी जाती । यह भी अहिंसा का वालों पर भी क्रोध न करना) आदि ऐसे ही - ही एक रूप है।
अहिंसा-सहायक भाव हैं, जिनके सतत अभ्यास से (Vo (४) न भावरूप में और न द्रव्यरूप में-जहाँ न तो मनुष्य अहिंसा महाव्रती हो सकता है। इसके लिए कषाय ही रहा हो और न ही बाह्यरूप में हिंसा उसे साथ ही साथ क्रोध, मान, माया, लोभ आदि हुई हो। यह सर्वथा अहिंसा ही है।
कषायों से भी स्वयं को मुक्त रखना होगा। क्षमा,
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOG.
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