Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur

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Page 634
________________ करना पड़ता है, विचरण भी करना ही पड़ता है । इन सामान्य व्यापारों में जो स्थावर जीवों की हिंसा हो जाती है, उससे भी वह सर्वथा बचा नहीं रह सकता । इस सन्दर्भ में भी विवेकपूर्वक गृहस्थ को इस विधि से कार्य सम्पन्न करने चाहिए कि यह हिंसा यथासम्भव रूप से न्यूनतम रहे । गृहस्थ जनों के लिए विरोधी हिंसा का सर्वथा परित्याग भी इसी प्रकार पूर्णतः शक्य नहीं कहा जा सकता । गृहस्थ इतना अवश्य कर सकता है, और उसे ऐसा करना चाहिए कि वह किसी से अकारण विरोध न करे । किन्तु यदि विरोध की उत्पत्ति अन्य जन की ओर से उसके विरुद्ध होतो उसे अपनी रक्षा का प्रयत्न करना ही होगा । उस पर रक्षा का दायित्व उस समय भी आ जाता है, जब कि दुर्बल जीव पर प्राणों का संकट हो और वह उससे अवगत हो । स्वयं बचना और अन्य को बचाना दोनों ही उसके लिए अनिवार्य हैं । अहिंसा की दुहाई देते हुए ऐसे अवसरों पर आत्मरक्षा का प्रयत्न न करते हुए आक्रमण को झेलते रहना या दुबककर घर में छिप जाना - अहिंसा का लक्षण नहीं है । यह तो मनुष्य की कायरता होगी जिसे वह अहिंसा के आचरण में छिपाने का प्रयत्न करता है । ऐसा आचरण अहिंसक जन के लिए भी समीचीन नहीं कहा जा सकता । अहिंसा कायरों के लिए नहीं बनी, वरन् वह तो धीरों और वीरों का एक वास्तविक लक्षण है । ऐसा माना जाता है कि ऐसी अहिंसा ( कायरतामूलक) की अपेक्षा तो हिंसा कहीं अधिक अच्छी होती है । अहिंसा तो निर्भी ५७६ O कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट Jain Education International कता उत्पन्न करती है । जो निर्भीक है वह कायरता का आचरण कर ही नहीं सकता । अहिंसा और शौर्य दोनों ऐसे गुण हैं जो आत्मा में साथ-साथ ही निवास करते हैं। शौर्य का यह गुण जब स्वयं आत्मा के द्वारा ही प्रकट किया जाता है तब वह अहिंसा के रूप में व्यक्त होता है और जब काया द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है, तो वह वीरता कहलाने लगती है । जैन धर्म पर आई विपत्ति को जो मूक दर्शक बनकर देखता रहे, उसका प्रतिकार न करे वह सच्चा अहिंसक जैनी नहीं कहला सकता । धर्मरक्षण के कार्य को हिंसा की संज्ञा देना भी इसी प्रकार की कायरता मात्र है। ऐसा ही देश पर आई विपत्ति के प्रसंग में समझना चाहिए। यह सब रक्षार्थ किये गये उपाय हैं । रक्षा का प्रयत्न करने में अहिंसा की कोई गरिमा नहीं रहती । अहिंसा तेजरहित नहीं बनाती, वह अपना सब कुछ नष्ट करा देना नहीं सिखाती । अहिंसा दास बनने की प्रेरणा भी नहीं देती । इतिहास साक्षी है कि जब तक भारत पर अहिंसा व्रती जैन राजाओं का शासन रहा, वह किसी भी विदेशी आक्रान्ता समक्ष नतमस्तक नहीं हुआ, किसी के अधीनस्थ नहीं रहा । अहिंसा प्रत्येक स्थिति में मनुष्य के चित्त को स्थिर रखती है, कर्त्तव्य का बोध कराती है और उस कर्त्तव्य पर उसे दृढ़ बनाती है । अहिंसा गृहस्थ को आत्म- गौरव से सम्पन्न बनाती है, उसे निर्भीक और वीर बनाती है । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jaineli

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