Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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में आई जीवात्माओं को पतित से पतिततम अव- ७४ तेरहवीं पंक्ति) इत्यादि पृष्ठों पर 'अस्मत्' शब्द स्थाओं में पहुंचाने की योजनाएँ बनाने में लगा का प्रयोग हुआ है। यह 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग, रहता है।
_____ अनुसुन्दर चक्रवर्ती के द्वारा किया गया है। जिससे आशय यह है कि उपमितिभव प्रपञ्चकथा की यह निश्चय होता है कि इस महाकथा का मुख्य कथाओं में द्वविध्य का समावेश, इस तरह हुआ नायक, वही है। जिन स्थलों पर 'एतत्' 'इदं' या है, कि कर्मबन्ध का 'आस्रव' जिन क्रिया कलापों से 'जीव' शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पर, उसका होता है, उनका, और 'संवर' की प्रक्रिया में सह- अर्थ सामान्य-जीवविषयक ही ग्रहण किया जाना योगी क्रियाकलापों का निर्देश, पाठक को साथ- चाहिए। जैसा कि 'एवमेष जीवो राजपुत्राद्यवसाथ उपलब्ध होता जाये। जिससे उन्हें यह अनु- स्थायां वर्तमानो बहुशो निष्प्रयोजनविकल्पं परम्परभव करने में कठिनाई न हो कि 'असद्-प्रवृत्ति' से याऽऽत्मानमाकुलयति' (पृष्ठ-३७ तृतीय पंक्ति), 'यदा जीवात्मा, कर्म-बन्धन में किस तरह जकड़ता है, खल्वेष जीवो नरपतिसुताद्यवस्थायामतिविशाल
और कर्म-बन्ध की इस स्थिति को, किस तरह की चित्ततया' (पृष्ठ वही पञ्चम पंक्ति), तथा 'ततोऽयमेव प्रवृत्तियों से बचाया जा सकता है। यह स्पष्ट जीवोऽनवाप्तकर्त्तव्यनिर्णयः' 'यदायं जीवो विदितज्ञात हो जाने पर ही जीवात्मा यह समझ पाता है प्रथम सुखास्वादो भवति' (पृष्ठ-६७, पंक्ति क्रमश: माल कि भवप्रपञ्च के विस्तार का यह मुख्य कारण प्रथम एवं सातवीं) आदि प्रसंगों में हुए शब्द प्रयोगों Ke 'कर्मबन्ध' है। 'कषाय' और 'इन्द्रियों की विषय से स्पष्ट है। प्रवृत्ति' ऐसे दुविकार हैं, जो भवप्रपञ्च रूपी वृक्ष इस महाकथा में वर्णित कथा-तथ्य, वस्तुतः र को हरा-भरा बनाये रखने में, मुख्य-जड़ों को जैन-धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित तत्त्व-विवेचना से भूमिका निभाते हैं। इस भवप्रपञ्च वृक्ष को ओत-प्रोत है। जीवधारियों का जन्म, उनके 5) उखाड़-फेंकने की शक्ति, पाठकों में आये, यही संस्कार और आचरण, जीवन, पद्धति, सोच-विचार का आशय, इस कथा का मुख्य लक्ष्य रहा है। की भावदशाएँ, साधना, और ध्यान आदि मोक्ष
किन्तु, इस द्विविधापूर्ण कथानक के हर प्रस्ताव पर्यन्त तक का समग्र चिन्तन-मनन, जैन धार्मिक/ K में जो कथानक आये हैं, उन्हें, पढ़कर भी यह भ्रम दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित है। कर्म, कर्म
बना ही रह जाता है कि मूलकथा का नायक कौन फल, कर्मफल-भोग और कर्मपरम्परा से मुक्ति, इन है ? यदि, पाठकवृन्द, थोड़ा सा भी सतर्क भाव से, समस्त प्रक्रियायों/दशाओं में जीव सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र इस विशाल कथा को पढ़ेंगे, तो वे देखेंगे कि मूल- है, जैनधर्म की यह मौलिक मान्यता है। जिस कथा नायक के संकेत पूरे ग्रन्थ में यत्र-तत्र मिलते तरह, कोई एक अस्त्र, व्यक्ति की जीवन-रक्षा में जाते हैं। कथा में बीच-बीच में कुछ शब्द/वाक्य, निमित्र बनता है, उसी तरह, उसके जीवन-विच्छेद इन संकेतों को स्पष्ट करते हैं। जैसे--'सराग- का भी कारण बन सकता है । अस्त्र के उपयोग की संयतानां भवत्येवायं जीवो हास्यस्थान' (पृष्ठ ३३ भूमिका, अस्त्रधारी के विवेक पर निर्भर होती है। प्रथम पंक्ति), 'तदेतदात्मीयजीवस्यात्यन्तविपरीत- ठीक इसी तरह जीवात्मा, अपने विवेक का प्रयों चारितामनुभवताऽभिहितं मया-योऽयं मदीयजीवो- भवप्रपञ्च के विस्तार के लिये करता है, या भकऽवधारित जात्यन्धभावोऽस्य' (पृष्ठ वही, पांचवी पंक्ति) प्रपञ्च को नष्ट करने में यह उसके विवेक पर 'मदीय जीवरोरोऽयं' (पृष्ठ-४३ दूसरी पंक्ति), 'परमे- निर्भर होता है। जैनधर्म/दर्शन के सारे के सारे श्वरावलोकनां मज्जीवे भवन्तों' (पृष्ठ-५३, अन्तिम सिद्धान्त 'विवेक-प्रयोग' पर ही निर्धारित किये गये पंक्ति), 'ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः' (पृष्ठ- हैं । यह, सर्वमान्य, सर्व-अनुभूत तथ्य है कि विवेक ५४, तीसरी पंक्ति), 'ततो यो जीवो मादृशः' (पृष्ठ- के प्रयोग की आवश्यकता तभी जान पड़ती है,
कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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0650 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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