Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur

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Page 623
________________ Todarrih. अभिलाषाओं के ज्वार में उसका चित्त डूबकर दम• सम्पदा से सम्पन्न करने का श्रेय जैन संस्कृति को घोंटू वातावरण का अनुभव करने लगता है। अ- ही मिलता है। all सन्तुष्ट होकर ऐसा व्यक्ति दौड़-धूप में ऐसा व्यस्त करुणा-क्षमाशीलता का औदार्य जैन संस्कृति ५, हो जाता है कि सारे सुख उससे छिन जाते हैं। की अमूल्य देन है। मनुष्य की मनुष्यता का सार । वह सम्पन्न दुखी होकर रह जाता है। फिर लोभ, करुणाशीलता में जितना सन्निहित रहता है, उतना अधिक से अधिक प्राप्त करने की आकांक्षा उससे कदाचित किसी अन्य मानवीय गूण में नहीं । प्राणी कुछ भी करवा सकती है । अहिसा के मार्ग से वह के कष्ट को देखकर जो द्रवित न हो जाय उस च्यूत हो जाता है, वह घोर अनादर्शों और अनी- मनुष्य की मनुष्यता की सर्वांगता संदिग्ध ही कही तियों के विकट वन में आँधियों की भाँति हहराता जाएगी। दुखी जनों की सहायता हमारा परम ही रह जाता है । और इस प्रकार वह अपना और कर्तव्य है और इस कर्तव्य के निर्वाह के लिए बाह्य अन्यों का जीना दूभर कर बैठता है । ऐसी स्थिति आदेश या दबाव सफल नहीं हो सकता। इसके में जैन संस्कृति अपरिग्रह के सन्देश द्वारा कितना लिए तो अन्तःप्रेरणा ही सहायक रह सकती है। उपकार करती है। हम दूसरों के कष्ट-निवारण में तभी सहायक हो जैन संस्कृति कर्म सिद्धान्त की प्रतिष्ठा कर यह सकते हैं जब उनके प्रति हमारे मन में सहानुभूति व्याख्या भी करती है कि मनुष्य को अपने कर्मो के हो, करुणा हो । मानव-मन में इस महती करुणा || अवश्य मिलते हैं। और यह प्रतिपादन भी इस को अंकुरित और पल्लवित करने की अद्भुत क्षमता संस्कृति द्वारा भलीभाँति हो जाता है कि फल सदा जैन संस्कृति में है । यह ऐसा गुण है, जो अहिंसा कर्मानुसार ही होता है । शुभकर्मों के फल सदा शुभ जैसे अन्य औदार्यों के लिए भी हमें सहजतः प्रेरित ही होंगे और अशुभकर्मों के फल कदापि शुभ नहीं करता है। मनुष्य सब प्राणियों के प्रति बन्धुत्व और होंगे । स्वभावतः मनुष्य शुभफलाकांक्षी हो होता स्नेह का नाता रखे, उनके प्रति हितषिता का भाव | | है और यह संस्कृति उसे ऐसी दशा में शुभकर्मों के हो-मानवता के लिए यह एक अनिवार्य तत्त्व है। IAS प्रति रुचिशील बना देती है। विश्व मानवता पर इस संस्कृति का यह उपकार कम नहीं कहा जा क्षमा एक ऐसा गुण है जिसे अपना लेने सकता है । यह संस्कृति मनुष्य को भाग्यवादी नहीं पर वह मनुष्य अपने लिए किसी व्यक्ति को शत्रुरूप बनने देती है । यह तो यही सिखाती है कि मनुष्य में स्वीकार कर ही नहीं पाता। हमारे प्रति किये स्वयं ही अपने भविष्य का निर्माता है । वह जैसा गये अपकारों से तटस्थ होकर हम अपने अपराधियों आज करेगा उसी के अनुरूप उसका कल होगा ! को क्षमा कर दें, उनके साथ वैमनस्य के भाव को इस प्रकार यह संस्कृति मनुष्य को 'अजगर करै न विस्मृत कर दें-इसी में हमारी समग्र मानवता के चाकरी, पंछी कर न काम' जैसा बन जाने से बचा दर्शन होंगे। हमारे हितैषियों के प्रति हम भी लेती है। हितैषी रहें-इसमें कोई विशेषता नहीं है। जैन ___ मनुष्य को यह उद्यमी बनने की प्रेरणा संस्कृति तो हमें जिस अद्भुत गौरव से मन्डित 412 देती है और इस आत्म-विश्वास से भी उसे सम्पन्न करना चाहती है, वह हमारे इस गुण में निवास कर देती है कि वह कल क्या बनेगा-यह स्वयं करता है कि हम समत्व से सम्पन्न होकर शत्र - उसी के हाथ को बात है । अपने भविष्य की रूप- मित्र का भेद करना भूल जायें । सभी को हम मित्र रेखा भी वह बना सकता है और उसे क्रियान्वित मानें और सभी के लिए हमारे मन में हितैषिता भी वह स्वयं ही कर सकता है। मनुष्य को इस का भाव हो । हमारा मन इस प्रकार रोष, प्रति कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५६५ enabG0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwjalorary.org

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