Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur

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Page 624
________________ शोध, हिसादि विकारों से सुरक्षित हो जाता है । दूसरे पक्ष को भी जब कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो उसकी दुष्प्रवृत्तियाँ दुर्बल हो जाती हैं, उसके मन में प्रायश्चित्त का भाव उदित होता है, उसका संशोधन आरम्भ हो जाता है । क्षमाशीलता का ऐसा अद्भुत प्रभाव है और इस प्रभाव का उपयोग करते हुए श्रमण संस्कृति मानव मात्र को मैत्री, बन्धुत्व, साहचर्य और सहानुभूति की उदात्तता से विभूषित करती है । 'जीओ और जीने दो' - मनुष्य के लिए एक सुन्दर आदर्श है, किन्तु जैन सांस्कृतिक दृष्टि इसमें किसी असाधारणता को नहीं देखती । 'जीने दो'का भाव यही है कि उसके जीने में किसी प्रकार का व्यवधान प्रस्तुत न करो । यह निषेधमूलक निर्देश भी प्रशंसनीय अवश्य है, किन्तु यह अपूर्ण भी है । केवल बाधा न डालने मात्र से ही दूसरों के जीने में हम सहायक नहीं हो सकते । हमारा कर्तव्य तो यह भी है कि दूसरों के जीवन को हम सुगम बना दें, दूसरों को जीने के लिए हम सहायता भी करें । मनुष्य के समुदाय में रहने की इतनी उपादेयता तो होनी ही चाहिये । जनसेवा और मानवमैत्री के इन पुनीत आदर्शों के कारण जैन संस्कृति गौरव में अभिवृद्धि हुई है। भगवान महावीर का यह सन्देश भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि मेरी सेवा करने की अपेक्षा दीन-दुखियों की सेवा करना अधिक श्रेयस्कर है । मेरी भक्ति करने वालों पर, माला फेरने वालों पर मैं प्रसन्न नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्न उन लोगों पर हूँ, जो मेरे आदेश का पालन करते हैं । और मेरा आदेश यह है कि प्राणिमात्र को साता समाधि पहुँचाओ । EE कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट Jain Education International निश्चित ही जंन संस्कृति एक महान संस्कृति है और उसकी उपलब्धियाँ मानव समाज को श्रेष्ठ स्वरूप प्रदान करने में कम नहीं हैं । मानवाकृति का देह धारण करने वाले प्राणी को सच्ची मनुष्यता के सद्गुणों से मनुष्य बना देने की भूमिका में श्रमण संस्कृति को अनुपम सफलता मिली है । श्रमण संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों की ही भाँति विकासमान रही है । युगीन परिस्थितियों के अनुरूप इसमें परिवर्तन होते ही रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे । इन परिवर्तनों के प्रभाव दो रूपों में प्रकट हो सकते हैं । एक तो यह कि संस्कृति के विद्यमान स्वरूप में कुछ नवीन पार्श्व जुड़ते शुभ रहें और उसकी गरिमा बढ़ती रहे । इस प्रकार तो किसी भी संस्कृति की क्षमता और मूल्य में अभिवृद्धि ही होती है । किन्तु परिवर्तन का जो दूसरा रूप संभावित है, उसके प्रति भी हमें सावधान रहना चाहिये । समय स्वयं सभी वस्तुओं और विचारों को परिवर्तित करता रहता है। उच्च भव्य प्रासाद समय द्वारा ही खण्डहर कर दिये जाते हैं । समय जहाँ कच्चे फलों को पकाकर सरस और सुस्वातु बना देता है, वहाँ यही समय उन फलों को दूषित और विकृत भी कर देता है। फल सड़-गल जाते हैं । समय व्यतीत होते रहने के साथ ही कलियाँ खिलकर शुरम्य पुष्प हो जाती हैं और यह समय पुष्पों को रूपहीन और अनाकर्षक भी बना देता है । समय ने हो श्रमण संस्कृति को इतना उदात्त और इतना महान स्वरूप प्रदान किया है । अब हमारे सामने एक गुरुतर दायित्व है । हमें प्रयत्नपूर्वक इस संस्कृति की श्रीवृद्धि करनी होगी ! साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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