Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur

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Page 596
________________ साधनों में आदिस्थान धर्म को ही प्रदान किया यह तो चर्चा हुई लौकिक सुख की। किन्तु । गया है। वस्तुतः धर्म ही सुख प्रदान करने वाला वास्तविकता यह है कि ये लौकिक सुख वास्तव में SAI प्रमुख और समर्थ साधन है। शेष अर्थ और काम सुख होते ही नहीं। ये तो सुखों की छाया मात्र । तो गौण स्थान रखते हैं और इन दोनों साधनों में हैं। इन सुखों का अन्तिम परिणाम घोर कष्टकर भी धर्म की संगति अनिवार्य रहती है । धर्मरहित दुःख होता है । फिर इन्हें सुख कहा ही कैसे जाय? | अर्थ सुख नहीं, दुःखों का ही मूल कारण बनता है। यह तो मनुष्य का अज्ञान और मोह ही है जो Call सुख प्राप्त करना जीव का अनिवार्य स्वभाव है- इनमें सुख की प्रतीति कराने लगता है । वास्तव में ! इस प्रवृत्ति के अधीन होकर मनुष्य नीति-अनीति यह मनुष्य का भ्रम है और यही भ्रम उसे घोर उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना अधिकाधिक दुःखजनक तथाकथित सुखों के पीछे दौड़ने को अर्थ-संचय में लग जाता है। वैभव-विलास के विवश कर देता है। यह ध्यान देने योग्य बात है , साधनों के अम्बार लग जाते हैं, उच्च अट्टालि- कि सुख तो जीव के भीतर से ही उदित होने वाला । काओं का वह स्वामी हो जाता है। अपार धन- एक तत्त्व है और उसका आभास भी कहीं किसी धान्य और स्वण-माणिक्य से भरा-पूरा उसका बाह्य पदार्थ में नहीं हो सकता। अपने से बाहर है प्रासाद अन्यजनों के लिए ईष्या का कारण तक सख की खोज करने वाले प्राणी की स्थिति तो उस बन जाता है। उसे समाज में उचित प्रतिष्ठा भी मृग की सी है जो अपनी नाभि में बसी कस्तूरी की प्राप्त हो जाती है। यह सब कुछ होते हुए भी ता ह। यह सब कुछ हात हुए भी मादक गन्ध से चंचल होकर उस सुगन्धित पदार्थ अधर्म से प्राप्त धन उसके मन को अशांत रखता है। को प्राप्त करने के लिए-फिर-फिर सूघे घास' बेईमानी से व्यवसाय करके यदि धन प्राप्त किया की अवस्था में रहता है। आवश्यकता सुख के गया, तो उस धन को छिपाने की समस्या रहेगी। स्वरूप को समझने की है । सारे भ्रम फिर दूर हो मनुष्य स्वयं को भी भीतर ही भीतर धिक्कारता जायेंगे, भ्रान्तियाँ कट जायेगी और सुख के | रखता है कि अन्याय और अनीति के साथ ही उस पात्रों से मन मक्त टो जायगा। ने यह धन प्राप्त किया है। ऐसी स्थिति में मान- बाहरी पदार्थों में सुख का अनुभव करने वाले हैं सिक असंतोष होना ही है और बाहर से उसका जन इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सुखोपजीवन कितना ही सुखमय क्यों न प्रतीत हो, भोग की लालसा ही रखते हैं । ये सुख न केवल वास्तव में वह दुःख की ज्वाला में दग्ध रहा करता क्षणिक अपित वास्तव में अन्ततोगत्वा दुःखरूप में है। इसके विपरीत धर्माचरण सहित अजित धन परिणत होने वाले भी होते हैं। वे स्वयं सुख नहीं । मात्रा में चाहे कितना ही अल्प क्यों न हो, वह हैं। वे तो ऐसे साधन हैं जो किसी एक व्यक्ति के ब्यक्ति को आत्मिक संतोष अवश्य देता है और लिए सख तो उसी समय किसी अन्य व्यक्ति के यह मानसिक शान्ति उसके सुख का आधार बन लिए दःख के कारण होते हैं । जब एक ही साधन । जाती है। यह सूख स्थिरतायुक्त भी होता है और या कार्य सख भी उत्पन्न कर रहा है और दुःख ! CALL अन्तः-बाह्य दोनों रूपों में एक सा ही होता है । हाँ, भी, तो सच्चे सुख का कारण नहीं कहा जा सुख-सुविधाओं की मात्रा कम भले ही हो सकती सकता। इसी प्रकार ये साधन तो इतने क्षीण और है, किन्तु इससे सुख के यथार्थ स्वरूप को कोई चंचल हैं कि एक ही व्यक्ति के लिए जो कभी सुख-। हानि नहीं होती । इन लौकिक सुखों के साथ धर्म कर होते हैं अन्य अवसरों पर वे ही दुःख के कारण का नाता बड़ा प्रगाढ़ हुआ करता है । धर्म के बिना भी बन जाते हैं। सन्तान का ही उदाहरण || सुख की शून्यता ही प्रमाणित होगी। लीजिए । परिवार में शिशु की किलकती हँसी से ५३८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 9E साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थONGC Jain Election International FAPate & Personal Use Only

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