Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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प्रति मंगल कामना रखना, संसार भर के प्राणियों सकता। निर्णय के लिए कसौटी तो कर्ता का मंतब्य का हित-चिन्तन करना, सभी के लाभ की भावना ही है। शुभ मंतव्य ही कार्य को शुभ बनाता है, रखना ऐसी शुभ प्रवृत्तियाँ हैं, जो मानसिक हैं। चाहे कार्य अशुभवत् दिखायी देता हो। इसके इसी प्रकार सदा मधुर, प्रिय और कोमल वचनो विपरीत अत्यन्त शुभ दिखायी देने वाला काय? का उच्चारण करना, वाणी द्वारा सभी के प्रति यदि बुरे उद्देश्य से किया जा रहा है तो वह शुभ स्निग्ध व्यवहार रखना-वाचिक शुभ प्रवृत्तियाँ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए, ठग कहलाती हैं। इसी प्रकार किसी प्राणी को कष्ट न मीठी-मीठी बातें करे, ग्राहक के लिए लाभ का पहुँचाना, हिंसामूलक कर्म न करना, किसी की सौदा दिखाये, उसके लिए हितैषी जैसा बना रहे,
रना आदि शुभ कायिक प्रवत्तियाँ हैं। तो उसका यह व्यवहार बुरे इरादे से होने के कारण || ये शुभ प्रवृत्तियाँ ही मनुष्य के लिए आदर्श एवं शुभ नहीं हो सकता। आखेटक दाना डालकर , अनुकरणीय होती हैं। इन शुभ प्रवृत्तियों के आधार पक्षियों को एकत्रित करता है। पक्षियों को दाना पर ही मनुष्य की धार्मिकता का भी मूल्यांकन डालना शुभ लगते हुए भी शुभ इस कारण नहीं है
| करता है। अशभ के प्रति कि अन्ततः वह पक्षियों को अपने जाल में फंसा, निवृत्ति का भाव रखने से शुभ के प्रति प्रवृति का लेना चाहता है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि भाव बलवान बनता है।
क्या किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय उस कार्य किसी कार्य को ऊपर-ऊपर से देखकर ही सह- के परिणाम के आधार पर किया जा सकता है ? जतः उसके शुभ अथवा अशुभ होने का निर्णय कर नहीं, ऐसा करना भी भ्रामक ही होगा। उदाहरण लिया जाता है, किन्तु यह भ्रामक होता है। कभी के लिए, शल्य चिकित्सा के परिणामस्वरूप यदि कभी कार्य ऊपर से अशभ दिखायी देता है. किंत रोगी रोगमुक्त होने के स्थान पर दुर्भाग्यवश मर । वास्तव में वह होता शुभ है। निरीह पशुओं को जाता है, ऐसी स्थिति में क्या चिकित्सक का कार्य निर्ममता के साथ पीटना, शस्त्रास्त्र के प्रयोग द्वारा
अशुभ कहा जायगा? नहीं, अशुभ नहीं कहा जा उनके शरीर को क्षत-विक्षत कर देना-किसी भी
सकता। परिणाम तो संयोगवश कुछ भी हो स्थिति में मन की प्रा प्रवति नहीं हो सकती। सकता है, काय के पछि कत्ती का जो भाव है वही। किंतु कोई शल्य चिकित्सक पैने उपकरण गाड़कर
हमारे लिए निर्णय की कसौटी होगी। अन्यथा,
आखेटक के जाल फैलाने पर भी यदि सारे पक्षी रोगी के अंगों को जब चीर-फाड़ देता है तो स्थिति तनिक भिन्न रहती है। रोगी को कष्ट हुआ, इस
उड़कर भाग जायें और वह एक भी पक्षी को पकड़ भयंकर कष्ट का कारण भी चिकित्सक का कर्म ही
न पाय, तो क्या आखेटक का कार्य शुभ हो जायगा ? है। किंतु चिकित्सक का यह कर्म अशुभ नहीं है।
परिणाम चाहे कैसा भी घटित हो, कार्य के ? कारण यह है कि चिकित्सक के इस कर्म पीने के आरम्भ में ही कर्ता के मंतव्य और भावना के कोई अशुभ मंतव्य नहीं है। वह रोगी को रोग- अनुसार कार्य का शुभाशुभ रूप निश्चित हो जाता मुक्त करना चाहता है और इसी उद्देश्य से वह ह
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है। अस्तु, शुभ प्रवृत्ति के लिए मंतव्य एवं भावना चीर-फाड़ कर रहा है । चिकित्सक का कर्म अन्य का शुभ होना भी अत्यावश्यक है। जन (रोगो) के लिए प्रत्यक्षतः पीड़ा का कारण हमारे यहाँ निवृत्ति का बड़ा गुण गान किया होते हुए भी अशुभ नहीं कहा जा सकता। गया है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रवृत्ति
भाव यह है कि केवल प्रत्यक्ष स्वरूप मात्र से तुच्छ है। प्रवृत्ति भी महत्त्वपर्ण है और यही किसी कार्य के शुभाशुभ का निर्णय नहीं किया जा प्रयत्नापेक्षित भी है । 'कुछ करना' प्रवृत्ति' का ही। ५४६ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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