Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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सतियों के समुदाय में प्रख्यात गणधरा अब शिष्या नहीं, अपितु प्रसिद्ध सतियों में चमकता रत्न है,
सुप्रसिद्ध सतियों में गुरु के तुल्य शोभित है । इन सतीजी को देखकर अब अन्य सतियां भी जो अपने ज्ञान | ला और गुणों से विमल हैं, वे भी अब स्पर्धा के लिए यत्न करती हैं।
श्रद्धाधर्मोज्ज्वलाचिः प्रतिदिनमपरं व्यापृतं जनसंघम्, धर्मश्रद्धातिरेकं परहितविषये दृष्टिदानाय नित्यम् । सम्प्रेर्याधिक्षयार्थं श्र तरसरचितं मार्गमेवोदगिरन्ती,
श्रेष्ठं मत्वा सतीयं सुलभहितपरै राजते वाक्यवृन्दैः ॥१५॥ अर्थ-श्रद्धा और धर्म की झिलमिलाती अग्नि की लपट ये सतीजी प्रतिदिन जैन जनों, जो धर्म और श्रद्धा का आधिक्य रखते हैं, उनको सदा परोपकार के लिए उपदेश करती रहती हैं। मार्मिक व्यथाओं के दूर करने के लिए शास्त्रों के तत्त्व को श्रेष्ठ मानकर समझ में आ सके ऐसे वचनों से उद्बोधन करती हुई सोहती हैं।
जानाम्येनां सुशीला सततगुणमयी शिक्ष्यमाणां सदाऽहम, स्वामोन्नत्य प्रयातां सरलसुवचनरुत्तरैर्बोधयन्तीम् । स्मृत्वा सर्वं नितान्तं त्यजति मम मनः क्रू रवृत्ति मदीयाम्,
जिह्व म्यद्य स्वतोऽहं कटु विषवचनैः किन्तु शिक्षात्यगम्या ॥१६।। अर्थ-जो मुझसे व्याकरणादि सीखी हुई, इस सुशील गुणवती सतीजी को जानता अवश्य हूँ, क्योंकि ये अपने को उन्नत करने के लिए सीधे-सादे उपदेशों से ज्ञान बखेरती हुई, आज परमपद से शोभित हैं, और मैं जहाँ था वहीं हूँ तथा अब मैं अपने उन तीखे वचनों का स्मरण कर पछताता हूँ और शरमाता हूँ, किन्तु शिक्षा कठिनता से प्राप्त होती है, करता भी तो क्या ?
यद्यप्यस्याः स्वभावे सहजमुपकृतेश्चित्रमेतन्नवीनम्, पश्यामीत्थं विलक्षः किमपि तु वचनैर्वक्त मीशो भवेयम् । माहात्म्यं चाप्यपूर्व विरलमधिकृतेदिव्य-रूपं त्वलभ्यम्,
संसारी कामचारः कथमपि विमलं तत्त्वमाप्त कथं स्याम ।।१७।। अर्थ-किन्तु स्वाभाविक उपकार करने के नये दृश्य को देखकर तो मैं अब अचम्भे में गिर पड़ता हूँ कि किस प्रकार मैं ऐसी शक्ति प्राप्त करू जैसी कि सतीजी ने प्राप्त कर ली है। किन्तु मैं | का गृहस्थी और असंयमी रहकर क्या ऐसा दृश्य उपस्थित कर सकता हूँ।
मानं त्वस्या वदेयं किमिति पुनरहो वर्णने सन्ति सत्यः, यासां कोतिदिगन्ते प्रसरति भुवने सत्प्रभावैरजस्रम् । वैदुष्यञ्चाप्यपूर्व दिशि दिशि बहुधा दीप्तिमद्देशनायाम्,
श्रु त्वा सर्वे विमुग्धा गुणिजनसकला संति सद्योऽद्यभूमौ ॥१८॥ अर्थ-इन सतीजी में मान जैसी तो कोई बात ही नहीं है। इनके अतिरिक्त अन्य पवित्र गुणवती सतियों को भी देखता हूँ कि जिनके दिव्य प्रभाव के सामने श्रावक ठहर नहीं पाते, किन्तु इनके व्याख्यान को सुनकर श्रावक जमे के जमे ही रहते हैं, उठने का नाम ही नहीं लेते।
जानन्त्येतज्जगत्या जिनवरमुनयो रक्षका जोवयोनेः, कष्टं लब्ध्वाऽपि लोके हितकरवचनैः शिक्षयन्त्येव सत्यम् । लोकाः सर्वे विमुग्धा परहितविमुखाः स्वाथिनो भोगवृत्तः किं जानीयुमहत्त्वं जगति धनरताः सन्मुनीनां कथानाम् ॥१६॥
SERY
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सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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O630 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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