Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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LAB अधिक उत्साहित थे, पर जैन लेखकों ने प्राकृत में प्राप्य-अप्राप्य लगभग पचास ग्रन्थ ऐसे हैं. जिन्हें
भी लिखना चालू रखा। आ० हरिभद्रसूरि इसके आचार्य हरिभद्र-रचित माना जाना सन्देहास्पद उदाहरण हैं।
नहीं है। आ० हरिभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों ने प्रस्तुत निबन्ध में आचार्य हरिभद्र द्वारा जैनकाफी ऊहापोह किया है। अन्ततः पुरातत्त्व के योग पर प्राकृत में रचित कृतियों पर विचार प्रख्यात विद्वान तथा अन्वेषक मुनि जिनविजय ने करेंगे । उस पर सूक्ष्म गवेषणा की। उन्होंने आचार्य हरि- वह एक ऐसा समय था. जब भारतवर्ष में कर भद्रसूरि का समय ई. सन् ७००-७७० निर्धारित
विभिन्न धर्म-परम्पराओं में योग के नाम से आध्याकिया, जिसे अधिकांश विद्वान् प्रामाणिक मानते त्मिक साधना के अनेक उपक्रम गतिशील थे। योग छ
शब्द का पतंजलि ने चित्तवृत्ति-निरोधके रूप में जो प्राचीन लेखकों तथा आधुनिक समीक्षकों उपयोग किया है, जैन परम्परा में वैसा लगभग नहीं द्वारा किये गए उल्लेखों के अनुसार हरिभद्र रहा है। वहाँ योग आस्रव है, जो मानसिक, ब्राह्मण-परम्परा से श्रमण-परम्परा में आए वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों से जुड़ा है । चैतसिक थे । वे चित्रकूट >चित्तऊड चित्तोड़ या चित्तौड़ के शुद्धि, अन्तःपरिष्कार या कर्म-निर्जरण के लिए जैन राजपुरोहित वंश से सम्बद्ध थे। अपने समय के परम्परा में तप का स्वीकार हुआ है । औपपातिक उद्भट विद्वान थे। याकिनी महत्तरा नामक जैन सूत्र आदि आगम-ग्रन्थों में तप के सम्बन्ध में विस्तृत साध्वी के सम्पर्क में आने से जैन धर्म की ओर विश्लेषण है। आकृष्ट हुए । जैन धर्म में श्रमण के रूप में प्रवजित । हुए । वैदिक परम्परा के तो वे महान पण्डित थे ही तपश्चरण का क्रम भारतवर्ष में बहुत प्राचीनमोरनी काल से प्रायः सभी धार्मिक परम्पराओं में रहा है। शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया। फलतः
महान् प्रज्ञा पुरुष पं० सुखलालजी' संघवी के अनउनके वैदुष्य में एक ऐसा निखार आया, जो निःसं
सार कभी इस देश में ऐसे साधकों की परम्परा देह अद्वितीय था।
रही है, जो सांसारिक भोग, सुख-सुविधाएँ, मान
अपमान आदि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों __ आ० हरिभद्र की भारतीय वाङमय को बहुत से सर्वथा अलिप्त, असंस्पृष्ट रहते हुए घोर तपोमय, बड़ी देन है। उन्होंने अनेक विषयों पर विपुल पशु-पक्षी जैसा सर्वथा निष्परिग्रह जीवन जीते थे। साहित्य रचा, आगमों पर व्याख्याएँ लिखीं, धर्म उन्हें अवधूत शब्द से अभिहित किया जाता रहा
व दर्शन पर रचनाएँ की, कथा-कृतियाँ भी रचीं। है। भागवत में ऋषभ का एक अवधूत योगो के मा परम्परा से उन्हें १४००, १४४० या १४४४ प्रकरणों रूप में वर्णन आया है। वर्तमान अवसर्पिणी के
का रचनाकार माना जाता है। यह स्पष्ट नहीं है प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ का जैन साहित्य में कि प्रकरण का तात्पर्य एक पुस्तक है अथवा पुस्तक जो वर्णन आता है, उससे भागवत का वर्णन तितिक्ष के अध्याय या भाग। सारांशतः छंटाई करने पर दृष्टि से बहुत कुछ मिलता-जुलता सा है । भागवत
१. योगसूत्र १.२ । ३. तत्त्वार्थ सूत्र ६.३, १९-२० । ५. समदर्शी आ. हरिभद्र पृ. ६३-६५ ।
२. तत्त्वार्थसूत्र ६.१-२ । ४. औपपातिक सूत्र ३० । ६. भागवत ५.५, २८-३५, ५.६, ५.१६।
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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