Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जहाँ तक स्वेच्छा से, असुरक्षा का अनुभव करके या पति के प्रति अनन्य प्रेमवश पति की मृत्यु पर उसका सहगमन का प्रश्न है-जैन साहित्य में सर्वप्रथम निशीथचूणि (७ वीं शताब्दी) में हमें एक उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार सोपारक के एक राजा ने करापवंचन के अपराध में नगर के पाँच सो व्यापारियों को जीवित जला देने का आदेश दिया, उनकी पत्नियाँ भी अपने पतियों का अनुसरण करते हुए जलकर मर गई। यद्यपि जिनदास गणि महत्तर इस घटना का विवरण प्रस्तुत करते हैं, किन्तु वे किसी भी रूप में इसका अनुमोदन नहीं करते हैं । यद्यपि इस कथानक से इतना अवश्य फलित होता है कि यह सतीप्रथा भारत में मुस्लिम शासकों के आक्रमण के पूर्व भी अस्तित्व में थी, वैसे हमें ७वीं शती के पूर्व निर्मित हिन्दू पौराणिक साहित्य में ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जहाँ पत्नी-पति की मृत्यु पर उसकी चिता में जलकर सहगमन करती है। अतः जैन स्रोतों से भी इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह प्रथा मुस्लिम शासकों के पूर्व भी अपना अस्तित्व रखती थी- इतना अवश्य हुआ कि मुस्लिम शासकों के आक्रमण और नारी जाति के प्रति उनके और उनके सैनिकों के दुर्व्यवहार से नारी में असुरक्षा की। भावना बढ़ती गयी एवं अपनी शील-रक्षा का प्रश्न उसके सामने गम्भीर बनता गया। फलतः भारतीय मानस सतीप्रथा का समर्थन करने लगा और नारी ने पति की मृत्यु के पश्चात् दूसरों की भोगलिप्सा का शिकार होकर नारकीय जीवन जीने की अपेक्षा मृत्यु-वरण को श्रेष्ठ मान लिया ।
फिर भी जैनाचार्यों ने कभी भी इस प्रथा का समर्थन नहीं किया-उनके अनुसार यदि स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् मरने को विवश किया जाता है तो यह कृत्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हत्या का बर्बर कृत्य ही माना जायेगा अतः वह कृत्य धार्मिक या धर्मसम्मत कृत्य नहीं है अपितु महापातक ही है और मारने वाला उस पाप का दोषी है । यदि दूसरी ओर स्त्री स्वेच्छा से असुरक्षा की भावनावश या अनन्य प्रेमवश मृत्यु का वरण करती है तो उसका यह कृत्य रागयुक्त होने के कारण आत्महत्या की कोटि में जाता है, यह आत्म-हिंसा है अतः यह भी पापकर्म है। पुनः जैनधर्म की मान्यता है कि परलोक में व्यक्ति को कौनसी योनि मिलेगी यह तो उसके कर्मों (सदाचरण या दुराचरण) पर निर्भर करती है, पति की मृत्यु पर उसका सहगमन करने पर अनिवार्य रूप से पतिलोक की प्राप्ति हो, यह आवश्यक नहीं है। अतः इस भावना से कि सती होकर वह स्त्री पतिलोक को प्राप्त होगी, स्त्री का पति की चिता पर जलाया जाना या जलना जैनधर्म की दृष्टि से न तो धार्मिक है और न नैतिक ही। इसके विपरीत डा. जगदीश चन्द्र जैन की सूचनानुसार महानिशीथ (वर्तमान स्वरूप ईस्वी सन् ८वीं शती के पूर्व) में एक उल्लेख आता है कि राजा की एक विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रकार की ! परम्परा नहीं थी अतः उसने अपना विचार त्याग दिया। इस घटना के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है,
१ तेसि पंच महिलासताई ताणि वि अग्गिं पावटठाणि ।
-निशीथचूणि भाग ४ पृ० १४ -बृहद्कल्पभाष्य वृत्ति भाग ३ पृ० २०८ २ देखें-(अ) विष्णुधर्मसूत्र २५॥१४ उद्धृत हिन्दूधर्मकोश पृ० ६४६
(ब) उत्तररामायण १७.१५ , , , (स) महाभारत आदिपर्व ६५।६५ , "
(द) महाभारत मौसलपर्व ७११८,७७३-८४,, , । ३ देखें-हिन्दू धर्म कोश पृ. ६५०
४ महानिशीथ प० २६ देखें-जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज प. २७१
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षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
6साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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