Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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२. गिरे ता गिरे, पर उठे भी बहुत ऊँचे
श्रेष्ठिपुत्र अरणक ने पानी पीकर कटोरा खाली तब तक मैं उसे फूल की तरह ही रखना चाहता किया ही था कि एक दासी ने उसे ऊपर-ही-ऊपर हूँ।" हाथ में ले लिया । श्रेष्ठी दत्त भी पुत्र के पास बैठे तगरा नगरी के श्रेष्ठी दत्त और सेठानी भद्रा थे । सेठानो भद्रा उसी समय आई थीं। उन्होंने को बडी आशाओं के बाद पत्र मिला था। अतः अपने पति को मीठी झिडकी दी
दोनों का ही पुत्र अरणक पर अतिशय प्यार था। ___"ऐसा कब तक चलेगा ? कहते तो यह हैं कि फिर भी पिता उसकी देखभाल पर अधिक ध्यान माताएँ लाड़-प्यार में पूत्र को बिगाड़ देती हैं। पर देते थे। वे चाहते थे कि अरणक को कुछ न करना मेरे अरणक को तो तुम-उसका पिता बिगाड़ रहा पड़े। है । इसे इतना तो करने दो कि पानी पीकर कटोरा अरणक बड़े सूखों में पल रहा था। उसे कोई । नीचे रख दे।"
पूछे कि गरमी क्या होती है तो वह नहीं बता "मेरा बस चले तो अरणक को पानी पीने का पाता, क्योंकि ग्रीष्म-शीत के कष्टों के अनुभव हु कष्ट भी न करना पड़े। पानी भी दासी पिये और का अवसर ही उसे नहीं मिला था। वह ऐसा फूल इसकी प्यास बुझे।
था जो चाँदनी में भी कुम्हला जाए। द्राक्षा खाने र - "अरणक की माँ, तम वे दिन भल गई. जब से उसके होंठ छिलते थे। पिता के लाड-प्यार ने हम सन्तान के लिए तरसते थे। एक सन्तान के उसे अत्यधिक नाजुक, सुकुमार और संवेदनशील बिना ही हमें अपना ऐश्वर्य बडा भयानक लगता बना दिया था। था । जाने कौन-सा पुण्य बचा था कि मैं पिता बना एक बार अर्हन्मित्र मुनि शिष्य मुनियों के साथ और तुम माता बन गईं। हमें अरणक जैसा सुन्दर, तगरा नगरी में पधारे। उन्होंने अपनी देशना में योग्य और चरित्रवान पुत्र मिला।"
कहा___"यह सब तो ठीक है स्वामी !' सेठानी भद्रा "हम साधुओं को भी चिन्ता होती है, हमें भी ने कहा-"पर अब अरणक बड़ा हो गया है। कल- दःख का अनुभव होता है, जब दूसरों को दःखी परसों उसके विवाह की तैयारी भी होगी। अब देखते हैं, तब ऐसा होता है । पर साधु और संसारी उसे अपने काम स्वयं करने दीजिए । अब भी वह की चिन्ता में अन्तर है। आपकी अपने लिए और धायों और दासियों के हाथ का खिलौना बना रहेगा हमारी आपके लिए-दूसरों के लिए। हमारातो वह अकर्मण्य, आलसी और कुण्ठित हो साधुओं का संसार विद्या का संसार है तो संसारियों जायगा।"
का संसार अविद्या का है। "तुम चिन्ता मत करो।" श्रेष्ठी दत्त ने कहा "भव्य जीवो, संसार में रहो, कोई हानि नहीं हो - "जब ऐसा अवसर आएगा, तब वह सब कुछ है, बस इतना ही ध्यान रखना है कि संसार की कर लेगा । जब तक माता-पिता की छाया बनी है, माया तुम पर सवार न होने पाये । बाहर से संसार ५०८
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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