Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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अरणक मुनि तपती धूप में गोचरी के लिए गये। चम्पा बोली
यद्यपि धूप का ढलान था, फिर भी यह धूप अरणक 'लेकिन वह आपके काम का नहीं है। कोई दमुनि के लिए असह्य थी । नंगे पाँव और नंगे सिर
सिर मुनि है ।'
- । थोड़ी ही दूर चले कि उन्हें पसीना आने लगा। हवा . भी बन्द थी । कनपटियों पर अंगारों के थप्पड़ से
___ 'मुनि है तो भिक्षा दूंगी।' सुन्दरी बोलीलगते थे । पाँव जल रहे थे । कोई वृक्ष आता तो
'ऊपर तो आ ही जाएगा।' थोड़ी देर छाँव में खडे हो जाते, पर दर-दर तक यह कह सुन्दरी स्वयं वातायन तक गई और
कोई वृक्ष ही दिखाई नहीं दे रहा था।'ऐसा कष्ट उसने नीचे झाँककर अरणकमुनि को खड़े देखा तो ( मुझे नित्य ही झेलना पडेगा।' अरणक मनि सोच चम्पा स बालाहो रहे थे- 'ऐसी गरमी में लोग जीवित कैसे रह पाते 'चम्पा ! बड़ा सुकुमार है । गोरी देह तप कर
हैं ? मैंने सोचा भी नहीं था कि ग्रीष्म का यह कष्ट लाल हो गई है । 'महाराज आहार लीजिए' यह भी झेलना पड़ेगा।'
कहकर तू मुनि को ऊपर ले आ ।' विवश-से चलते हुए अरणकमुनि बस्ती में . दासी खट-खट-खट् सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे पहँच गये। एक भव्य भवन के नीचे छाँव थी और 2. कुछ ठण्डक भी। अरणकमनि उसी के नीचे खडे सुन्दरी ने उन्हें प्रणाम किया और बोलीE होकर चैन की साँस लेने लगे । बस्ती में कोई कहीं 'मुने ! क्षमा करें, आपकी शत्रुता किससे है ?
आ-जा नहीं रहा है। सब अपने घरों में मानो क्या अपनी देह से शत्रुता है जो उसे ग्रीष्म में जला गरमी से डरकर बन्द हो गये थे।
रहे हो या फिर उठते यौवन से ही शत्रुता है जो + + + उसका भोजन उसे नहीं दे रहे ? एक सुन्दर युवती अपने शयन कक्ष में अकेली ‘मुने, विचार करो, देह के लिए तो आहार है थी। एक दासी पंखा झल रही थी। वातायनों पर
पर आपके यौवन का आहार तो मैं ही हूँ। यौवन । परदे पड़े थे। काफी राहत थी। इस सुन्दरी का
को भूखा रखना भी पाप है। मेरा यौवन भी भूखा ( पति बहुत दिनों से परदेश गया हुआ था। वह
है । व्यर्थ में काया को कष्ट देना तो मूर्खता है। | अपने मन की बातें अपनी दासी से कहकर ही समय
यदि मुनि बनना इतना अच्छा होता, जितना आपने काट लेती थी।
' समझा है तो सारा जगत मुनियों से ही भर जाता।' _ 'चम्पा वातायन खोल दे।' सन्दरी ने दासी सुन्दरी की बातें सुन अरणक मुनि सोचने । B कहा-'वातायनों से धूप हट गई है। कुछ बाहर
लगे-'बड़ी कठिनाई से मैं यहाँ तक आ सका हूँ? की हवा आने दे।'
नित्य ही ऐसी भीषण गरमी में गोचरी के लिए 2
आना पड़ेगा । सुन्दरी ठीक कहती है।' दासी ने कक्ष की खिड़कियों पर पड़े परदे हटा C दिये । उसने नीचे झांककर देखा तो अपनी माल
अरणक मुनि सोच ही रहे थे कि सुन्दरी ने ला किन से बोली
उनका हाथ पकड़ लिया। वे हाथ छुड़ा नहीं पाये। ___'स्वामिनी, तनिक देखो तो नीचे कौन खड़ा
वह बोलीERAL है ? बड़ा सुन्दर सजीला-गठीला युवक है।'
'पलंग पर बैठिए । मैं पंखा झलंगी। मैंने मोदक ___फिर पूछती क्या है ?' सुन्दरी ने कहा-'उसे बनाए हैं । खाकर ठंडा पानी पीजिए।' ऊपर ले आ ।'
अरणक मुनि सुन्दरी के जाल में फंस ही गए । Call ५१०
सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
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6.
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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