Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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पुनः जैनधर्म में संलेखना (समाधिमरण) की परम्परा भी प्रचलित थी। अतः विधवा स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में रहते हए भी तप-त्यागपूर्वक जीवन बिताते हए अन्त में संलेखना ग्रहण वस्तुपाल प्रबन्ध में वस्तुपाल की पत्नी ललितादेवी और तेजपाल की पत्नी अनुपमा देवी द्वारा अपने पतियों के स्वर्गवास के पश्चात् गृहस्थ जीवन में बहुत काल तक धर्माराधन करते हुए अन्त में अनशन द्वारा देहत्याग के उल्लेख हैं। किन्तु यह देहोत्सर्ग भी पति की मृत्यु के तत्काल पश्चात् न होकर वृद्धावस्था में यथासमय ही हुआ है। अतः हम कह सकते हैं कि जैनधर्म में सती प्रथा का कोई स्थान नहीं रहा है। परवर्तीकाल में जैनधर्म में सतीप्रथा का प्रवेश
यद्यपि धार्मिक दृष्टि से जैनधर्म में सतीप्रथा को समर्थन और उसके उल्लेख प्राचीन जैन धार्मिक ग्रन्थों में नहीं मिलते हैं। किन्तु सामाजिक दृष्टि से जैन समाज भी उसी बृहद् हिन्दू समाज से जुड़ा हुआ था जिसमें सती प्रथा का प्रचलन था। फलतः परवर्ती राजपूत काल के कुछ जैन अभिलेख ऐसे हैं जिनमें जैन समाज की स्त्रियों के सती होने के उल्लेख हैं। ये सहवर्ती हिन्दू समाज का प्रभाव ही था जो कि विशेषतः राजस्थान के उन जैनपरिवारों में था जो कि निकट रूप से राज-परिवार से जुड़े हुए थे।
श्री अगरचन्दजी नाहटा ने अपने ग्रन्थ बीकानेर जैन लेख संग्रह में जैनसती स्मारकों का १८ उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि जैनधर्म की दृष्टि से तो सती-दाह मोहजनित एवं अज्ञानजनित
आत्मघात ही है, किन्तु स्वयं क्षत्रिय होने से वीरोचित जाति-संस्कारवश, वीर राजपूत जाति के घनिष्ठ सम्बन्ध में रहने के कारण यह प्रथा ओसवाल जाति (जैनों की एक जाति) में भी प्रचलित थी । नाहटाजी ने केवल बीकानेर के अपने अन्वेषण में ही २८ ओसवाल सती स्मारकों का उल्लेख किया है। इन लेखों में सबसे प्रथम लेख वि० सं०१५५७ का और सबसे अन्तिम लेख वि० सं० १८६६ का है। वे लिखते हैं कि बीकानेर राज्य की स्थापना से प्रारम्भ होकर जहाँ तक सती प्रथा थी वह अविच्छिन्न रूप से जैनों में भी जारी थी। यद्यपि इन सती स्मारकों से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि सामान्य जैन समाज में यह सती प्रथा प्रचलित थी उचित नहीं होगा। मेरी दृष्टि में यह सती प्रथा केवल उन्हीं जैनपरिवारों में प्रचलित रही होगी जो राज-परिवार से निकट रूप से जुडे हए थे। बीकानेर के उपर्युक्त उल्लेखों के अतिरिक्त भी राजस्थान में अन्यत्र ओसवाल जैनसतियों के स्मारक थे। श्री पूर्णचन्द्र न
द्र नाहर ने भामाशाह के अनुज ताराचन्दजी कापडिया के स्वर्गवास पर उनकी ४ पत्नियों के सती होने का सादड़ी के
अभिलेख का उल्लेख किया है। स्वयं लेखक को भी अपने गोत्र के सती-स्मारक की जानकारी है । अपने । गोत्र एवं वंशज लोगों के द्वारा इन सती स्मारकों की पूजा, स्वयं लेखक ने भी होते देखी है। अतः यह स्वीकार तो करना होगा कि जैनपरम्परा में भी उधर मध्यकाल में सती प्रथा का चाहे सीमित रूप में ही क्यों न हो किन्तु प्रचलन अवश्य था । यद्यपि इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि यह प्रथा जैनधर्म एवं जैनाचार्यों के द्वारा अनुशंसित थी, क्योंकि हमें अभी तक ऐसा कोई भी सूत्र या संकेत उपलब्ध नहीं है जिसमें किसी जैन ग्रन्थ में किसी जैनाचार्य ने इस प्रथा का समर्थन किया हो । जैन ग्रन्थ और जैनाचार्य तो सदैव ही विधवाओं के लिए भिक्षणी संघ में प्रवेश की अनशंसा क
अतः परवर्ती काल के जो सती स्मारक सम्बन्धी जैन अभिलेख मिलते हैं वे केवल इस तथ्य के सूचक हैं कि सह
१ बीकानेर जैन लेख संग्रह-भूमिका पु० ६४-६६ षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
४७३ 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ करना
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