Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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३. वाणी-विवेक
जैनदृष्टि से यह आत्मा अनन्त काल तक मानव इन्द्रियों का सदुपयोग भी कर सकता है और निगोद अवस्था में रहा। जहाँ पर एक औदारिक दुरुपयोग भी कर सकता है । इन्द्रियों का सदुपयोग शरीर के आश्रित अनन्त जीव रहते हैं । यह आत्मा कर वह साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त कर की पूर्ण अविकसित अवस्था है। अकाम निर्जरा के सकता है और दुरुपयोग कर नरक और निगोद की द्वारा जब आत्मा पुण्यवानी का पुञ्ज एकत्र करता भयंकर वेदनाओं की भी प्राप्त कर सकता है । है तब वह वहाँ से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय मैं इस समय अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में चिंतन , और वायुकाय में आता है। और वहाँ पर वह न कर रसना इन्द्रिय के सम्बन्ध में अपने विचार आत्मा असंख्यात काल तक रहता है। इन पाँचों व्यक्त करने जा रही हूँ । अन्य चार इन्द्रियों का निकाय में केवल एक इन्द्रिय होती है और उस कार्य केवल एक-एक विषय को ग्रहण करना है। स्पर्श इन्द्रिय का नाम है-स्पर्श इन्द्रिय । केवल स्पर्श इन्द्रिय केवल स्पर्श का अनुभव करती है। घ्राण इन्द्रिय के द्वारा ही उन आत्माओं की चैतन्य शक्ति इन्द्रिय केवल सुरभिगंध और दुरभिगन्ध को ग्रहण अभिव्यक्त होती है। इन पांचों निकायों में आत्मा करती है। चक्षु इन्द्रिय रूप को निहारती है और
अपार वेदनाओं का अनुभव करता रहा किन्तु उस श्रोत्रेन्द्रिय केवल श्रवण ही करती है । चार इन्द्रियों || अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास का केवल एक एक विषय है। पर रसना 5 स्पर्श इन्द्रिय के अतिरिक्त कोई माध्यम नहीं था। इन्द्रिय के दो विषय हैं-एक पदार्थ के रस का अनु-११ ___जब भयंकर शीत ताप प्रभृति वेदनाएँ भोगते. भव करना और दूसरा बोलना है। यह इन्द्रिय पाँचों । भोगते कर्म दलिक निर्जरित होते हैं और पुण्य का इन्द्रियों से सबल है । जैसे कर्मों में मोहनीय कर्म प्रभाव बढता है तब आत्मा को द्वितीय इन्द्रिय प्राप्त प्रबल है। वैसे ही इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय प्रबल है होती है।उस इन्द्रिय का नाम है रसना इन्द्रिय, रसना इसीलिए शास्त्रकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा हैइन्द्रिय की उपलब्धि द्वीन्द्रिय अवस्था में हो जाती 'कम्माणं मोहणीय अक्खाणं रसनी। है और वह उसका उपयोग वस्तु के आस्वादन बेइन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी प्राणी हेतु तथा अव्यक्त स्वर के रूप में करता है । उसकी बोलते हैं पर बोलने की कला सभी प्राणियों में नहीं। वाणी अविकसित होती है । तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, होती। विवेकयुक्त जो व्यक्ति बोलना जानता है वह असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय तक इन्द्रियों का वचन पुण्य का अर्जन कर सकता है और अविवेक विकास होता है तथापि इन्द्रियों में जो तेजस्विता, युक्त वाणी से पाप का अर्जन होता है। वाणी के द्वारा उपयोगिता होनी चाहिये वह नहीं हो पाती । नार- ही अठारह पापों में मृषावाद, कलह, अभ्याख्यान, कीय जीव, तिर्यञ्च जीव भी पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पैशुन्य, परपरिवाद, माया-मृषावाद-ये पाप वाणी हैं किन्तु मानव की भाँति वे इन्द्रियों का सदुप- के द्वारा ही होते हैं। इसीलिये भारत के तत्वचितकों। योग जन जन के कल्याण के हेतु नहीं कर पाते। ने भले ही वे श्रमण भगवान महावीर रहे हों या ।
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सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन
। साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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