Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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वस्तु मूल रूप से सर्वथा नष्ट नहीं होती, उसकी पर्याय ही नष्ट होती है । जैसे कोई स्वर्णाभूषण है, चाहे उसे कितनी ही बार गलाकर बदल लें, बदल जायेगा । आज वह कुण्डल है तो कालान्तर में उसका कटक बनाया जा सकेगा फिर कभी अन्य आभूषण बन जायेगा परन्तु वह अपने स्वर्णपन से च्युत नहीं होगा इसी भाँति वस्तु में परिवर्तन पर्यायापेक्षा से होता है । द्रव्य अपेक्षा से नहीं । आज जो गेहूँ है वही आटा बन जाता है । फिर वही रोटी भोजन, मल, खाद आदि नाना पर्यायों को धारण करता है | इतना होने पर भी कोई विरोध नहीं आता । उसी प्रकार अनेकान्त के सहारे वस्तु को समझने में कोई विरोध नहीं आता । आज कोई धनादि के होने से धनाढ्य है तो कल वही उसके अभाव में रंक गिना जाता है । आज कोई रोग से रोगी है तो कल वह निरोगी कहलाता है । जोवन और मरण का क्रम भी इसी प्रकार हानोपादान के माध्यम से चलता रहता है । स्याद्वादी अनेकान्तवादी कभी भी दुखी या मायूस नहीं होता । वह वस्तु का परिणमनशीलपना भलीभांति जानता है । परिणमन के अभाव में वस्तुत्व धर्म समाप्त हो जाता है । जो व्यक्ति इसको नहीं जानता वह दुःखी होता है। संयोग और वियोग का सही स्वरूप जिसे ज्ञात नहीं है वह अज्ञानी इष्ट वस्तु के संयोग में हर्ष और वियोग में दुःखी होता है । ज्ञाता इससे विपरीत माध्यस्थ भाव धारण करता है । इसी विषय पर स्वामी समन्तभद्र ने लिखा हैघटमोलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक, प्रमोद माध्यस्थं जनोयाति सहेतुकम् ||
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अर्थात् जैसे सोने के कलश को गलाकर मुकुट बनाया गया तो कलशार्थी को दुःख होगा । मुकुट इच्छुक को प्रसन्नता होगी किन्तु जो मात्र स्वर्ण ही चाहता है उसे न हर्ष होगा न विषाद । वह मध्यस्थ रहेगा । इसी प्रकार लोक में विभिन्न वाद अपनी-अपनी मान्यता को लेकर उपस्थित होते कोई शून्यवादी है तो कोई सदैश्वरवादी । कोई द्व ेत
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वादी है तो कोई अद्वैत को मानते हैं । कोई नित्यवादी है तो कोई सर्वथा अनित्यवादी है, क्षणिक वादी है । अनेकान्त का ज्ञाता कभी इनसे विवाद नहीं करता । वह अपने अनेकान्त से वस्तु के असली स्वरूप को समझकर नय-विवक्षा लगाता है और सभी को स्वीकार करता है कि वस्तु कथञ्चित् नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी है अनेक भी है । द्वैत भी है और अद्वैत भी है । वह सब दशाओं में 'भी' से काम लेता है 'ही' से नहीं । वह कभी नहीं कहेगा कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य ही है, एक ही है, अनेक ही है, अतः स्पष्ट ही है कि अनेकान्तदर्शन समस्त वादों को मिलाकर वस्तु तत्व को निखारता है । अनेकान्ती जानता है कि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । न केवल सामान्य है तो न केवल विशेष । न सर्वथा भाव स्वरूप है तो न सर्वथा अभाव रूप । स्वामी समन्तभद्र ने इसी तथ्य को युक्त्यनुशासन में कहा है
व्यतीत सामान्य विशेषवाद्विश्वाखिलापाऽर्थ
विकल्पशून्यम् । खपुष्पवत्स्यादसदेव तत्वं प्रबुद्ध तत्वाद्भवतः परेषाम् ॥
अर्थात् एकान्तवादियों का तत्व सामान्य और विशेष भावों से परस्पर निरपेक्ष होने के कारण 'ख' पुष्पवत् असत् है क्योंकि वह भेद व्यवस्था से शून्य है । तत्व न सर्वथा सत् स्वरूप ही प्रतीत होता है। और न असत्स्वरूप ही, परस्पर निरपेक्ष सत् असत् प्रतीति कोटि में नहीं आता किन्तु विवक्षावशात् अनेक धर्मों से मिश्रित हुआ तत्व ही प्रतीति योग्य होता है ।
कुछ कहते हैं कि जो वस्तु अस्ति रूप है वह नास्ति रूप कैसे हो सकती है ? इसी के साथ उभय रूप, अनुभय रूप, वक्तव्य अव्यक्तव्य कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि - उक्त सातों भंग विधि प्रतिषेध रूप प्रश्न होने पर सही स्थिति में सिद्ध होते हैं । कहा भी है
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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