Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जैन विचारधारा में शिक्षा ( शिक्षक - शिक्षार्थी स्वरूप एवं सम्बन्ध )
व्यक्ति और समाज के निर्माण एवं विकास में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । शिक्षा राष्ट्र का दर्पण है, जिसमें वहाँ की संस्कृति की झलक देखी जा सकती है और शिक्षित व्यक्तियों के आचार-विचार से किसी राष्ट्र के स्वरूप का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
विज्ञान की चहुँमुखी प्रगति के साथ शिक्षा जगत में भी पर्याप्त प्रगति हुई है । इस शैक्षिक प्रगति के फलस्वरूप मानव ने भौतिक विकास की ऊँचाइयों को हस्तगत किया है, इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु इन ऊँचाइयों को हस्तगत करके भी वह आज अशान्त है, द्वन्द्व और संघर्ष से ग्रस्त है । इसका एक बड़ा कारण है शिक्षा में भौतिकता के साथ अध्यात्म और धर्म का सामंजस्य नहीं रहा । अध्यात्म और धर्म शिक्षा में क्या मूलभूत परिवर्तन ला सकता है, इस दृष्टि से विचार करने हेतु इस निबन्ध में जैन विचारधारा में शिक्षक और शिक्षार्थी के स्वरूप तथा उनके संबंधों पर विवेचन किया गया है । जैन विचारधारा में चर्चित एतद्विषयक योगदान के आधार पर शिक्षा में आवश्यक परि वर्तन करके उसके मंगलकारी स्वरूप को पुनः स्थापित किया जा सकता है । .
चांदमल कर्णावट, उदयपुर
शिक्षक और शिक्षार्थी - शिक्षा के पावन पुनीत कार्य में शिक्षक और शिक्षार्थी दो प्रमुख ध्रुव हैं । समुचित शिक्षा व्यवस्था की दृष्टि से इन दोनों के स्वरूप एवं इनके पारस्परिक संबंधों को समझना परम आवश्यक है । शिक्षार्थी के लिए शिक्षक आदर्श होता है और शिक्षक भी अपने शिक्षार्थी को समझकर उसकी योग्यता रुचि, विकास और पात्रता को पहचानकर ही उसे शिक्षा प्रदान करने का सफल उपक्रम कर सकता है । शिक्षक कैसा हो और शिक्षार्थी कैसा हो ? यह जानने के लिए जैन विचारधारा में प्रदर्शित शिक्षक और शिक्षार्थी के स्वरूप का विवेचन किया जा रहा है ।
शिक्षक का स्वरूप - जैन विचारधारा में शिक्षक के लिए 'गुरु', 'आचार्य' एवं ' उपाध्याय' के नाम उपलब्ध होते हैं । उपाध्याय के लिए आचार्य शीलांक ने 'अध्यापक' शब्द का भी प्रयोग किया है ।
जैन विचारधारा में मुक्ति या मोक्ष मार्ग के साधन रूप तीन तत्त्वों को प्रमुख माना गया है । वे हैं - देव, गुरु और धर्म । सम्यग्दर्शन या दर्शनसम्यक्त्व के पाठ में इन तीनों का उल्लेख हुआ हैअरिहन्तो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो, जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं 11
१. आवश्यक सूत्र - दर्शन सम्यक्त्व का पाठ
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन परम्परा की परिलब्धियाँ
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साध्वीरत्न अभिनन्दन ग्रन्थ
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