Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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आधुनिक शिक्षा को योगदान-उपर्युक्त तथ्यों एवं उनके विश्लेषण के आधार पर जैन विचारधारा में शिक्षा आधुनिक शिक्षा जगत को निम्नांकित योगदान कर सकती है
(i) जैनविचारधारा में शिक्षक को ज्ञानवान होने के साथ-साथ उतना ही आचारनिष्ठ भी बताया गया है । ज्ञान और आचार दोनों को समान महत्त्व दिया गया है। आज शिक्षित लोगों के गिरे हुए आचरण से समाज दुखी है । चारित्रिक मूल्यों को शिक्षानीति में रेखांकित किया जाना चाहिए। क्रिया या चारित्र के अभाव में ज्ञान अभीष्ट फलदायी नहीं हो सकता।
___ आज शिक्षक का चयन मुख्य रूप से उसकी अकादमिक योग्यता के आधार पर ही किया जाता है। उसके आचरण या चरित्र की प्रायः उपेक्षा ही की जाती है। आचरण से गि किस प्रकार चरित्रवान छात्रों का निर्माण कर सकते हैं। इसलिए शिक्षक के चयन के मापदण्डों में उसके आचरण को भी प्रमुख मानदण्ड (Criteria) निर्धारित किया जाना चाहिए । इस परिवर्तन से चरित्रवान शिक्षक प्राप्त हो सकेंगे। व्यक्तित्व, अभिरुचि एवं अभिवत्ति परीक्षणों से यह कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार शैक्षिक वातावरण और अबोहवा में एक मूलभूत परिवर्तन लाना आवश्यक है। यह भी महत्वपूर्ण है कि शिक्षण में शिक्षार्थी ही केन्द्र बिन्दु रहना चाहिए।
(i) शिक्षार्थी की पात्रता पर भी गम्भीर विचार करना आवश्यक है। अनिवार्य शिक्षा. जो सभी के लिए है, उसे छोड़कर उच्च शिक्षा में प्रवेश छात्रों की रुचि, अभिवृत्ति आदि के परोक्षण के आधार पर किया जाना वांछनीय है। जैन विचारधारा में शिक्षार्थी 'मुनि' की पात्रता पर कितना
विचार किया गया है। अपात्र छात्र को अध्ययन कराने वाला आचार्य स्वयं प्रायश्चित्त का भागी होता 37 है। अतः वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में छात्र की पात्रता के मानदण्ड निर्धारित होने के
शक्षा व्यवस्था में छात्र की पात्रता के मानदण्ड निर्धारित होने चाहिए। उसमें भी ||5 SH आचरण पर विशेष बल होना चाहिए । इसका निर्धारण परीक्षणों द्वारा किया जा सकता है । इससे एक 7 ओर रुचिशील, योग्य एवं सकारात्मक अभिवृत्ति वाले विद्यार्थी प्राप्त होंगे, वहाँ दूसरी ओर उच्च शिक्षा । के लिए भारी भीड़ पर भी नियन्त्रण किया जा सकेगा। साथ ही इससे राष्ट्र छात्र समस्याओं से भी मुक्ति पा सकेगा।
(iii) शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों में निकटता आवश्यक है। जैन विचारधारानुसार शिक्षार्थी शिक्षक के सान्निध्य में रहकर अध्ययन करता है । वह 'अन्तेवासी' होता है । शिक्षार्थी शिक्षक के सान्निध्य में रहकर उसके जीवन व्यवहारों से जितना सीखता है, उतना अन्य किसी प्रकार से नहीं। आज की दूरस्थ शिक्षा (Distance Education) में छात्र-शिक्षक के सम्बन्ध लुप्तप्राय हो रहे हैं। इन सम्बन्धों में निकटता की रक्षा हर प्रकार से की जानी चाहिए। इसे अधिकाधिक छात्रावासों की स्थापना से हल किया जा सकता है।
(iv) शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों में समानता, सेवा, स्नेह एवं सहयोग जैसे गुणों को भी विकसित | किया जाना चाहिए । भारतीय परिवेश में ये गुण सांस्कृतिक विरासत में मिलने चाहिए । परन्तु ऐसा भी नहीं हो रहा है । जैन शिक्षानुसार शिक्षक और शिष्य शिक्षण को आत्मशुद्धि का कार्य मानते हैं, व्यवसाय
नहीं। - शिक्षा के व्यापक अर्थ को लेकर इन बिन्दुओं पर पुनर्विचार करना अति आवश्यक है, क्योंकि अच्छे शिक्षकों-शिक्षार्थियों एवं उनके मधुर सम्बन्धों से ही कोई राष्ट्र वास्तविक अर्थ में समृद्ध और सम्पन्न बन सकता है।
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षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जन-परम्परा की परिलब्धियाँ
Co00 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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