Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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सर्वोदयी विचारों की अवधारणा के प्रेरक जैन.सिद्धान्त
-लक्ष्मीचन्द जैन 'सरोज' (एम० ए०)
भगवान महावीर के स्वर्णोपदेशों को अथवा धर्म रूपी तीर्थ को आचार्य प्रवर समन्तभद्र ने सर्वोदय तीर्थ संज्ञा दी है और ईसा की प्रथम सदी में ही सुस्पष्टतया यह घोषणा की है कि जैन सिद्धान्त अपनी पृष्ठभूमि में सर्वोदयी विचारों की अनेक अवधारणा लिए हैं।
सर्वोदय : धर्म-तीर्थ १. सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय, सबका कल्याण । एक मनीषी के विचार के धरातल में सर्वोदय वह उच्चतम शिखरस्थ मनोभावना है, जो विश्व-प्रेममयी है और स्व-पर कल्याणकारिणी है। यह आधुनिक आपाधापी के युग में अतीव आवश्यक या अनिवार्य इसलिए भी हो गई है कि इसका
सम्बन्ध प्राणी मात्र से जुड़ा है । चौरासी लाख योनियों के जीवात्माओं से यह सुदृढ़तम सम्बन्ध स्थापित 3 किये हैं। इसका मुलभत आधार 'आत्मवत्सर्वभतेष' है और एकात्मवाद का प्रचार
संवर्धन इसका उद्देश्य है । इसके क्षेत्र में स्वतन्त्रता और समानता, सह-अस्तित्व और भ्रातृत्व का क्षीरसागर लहरें मार रहा है। एक वाक्य में सर्वोदय जीवन मंगल, सत्य, शिव, सुन्दर शब्द है । शब्द कोश में यह शब्द है तो वह सफल है अन्यथा शब्दकोश निष्फल है । सर्वोदय वह शिखरस्थ शब्द है, जो आज भी विश्व व्यक्तियों का विशेषतया भगवान महावीर के पद-चिह्नों पर चलने वाले राजचन्द्र, काउण्ट लियो टालस्टाय, जॉन रस्किन, महात्मा गाँधी, अब्राहम लिंकन, मार्टिन लूथर, जार्ज बर्नार्डशा आदि के ध्यानआकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बना है और उनके अनुयायियों को आज भी प्रेरणा दे रहा है कि स्वार्थ के चक्रव्यूह से निकलकर परमार्थ के पथ पर उतने अग्रसर हो कि जितना भी शक्य और सम्भव हो अन्यथा वे आने वाली सदी का सहर्ष सहस्र बार स्वागत करने में अक्षम सिद्ध होंगे। जब तक व्यक्ति और समाज के लिए-रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या सुलझाने के लिए कार्य-आजीविका पूर्णतया न्यायमय नहीं मिलता है तब सामाजिक-धार्मिक जीवन भी सफल नहीं होगा।
२. सर्वोदय : धर्म-तीर्थ है। वह अपने में महर्षि कणाद् की अर्थ विषयक परिभाषा को आत्मसात् किये हैं। यह लौकिक अभ्युदय के साथ पारलौकिक निःश्रेयस् का भी आकांक्षी है। केवल जैनाचार्यों ने ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के आचार्यों ने भी सर्वोदयी : धर्म-तीर्थ की महिमा गाई है कि सभी सुखी हों, तथा नीरोग हों, सभी कल्याण देखें, किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो । समग्र संसार का कल्याण
-युक्त्यनुशासन
१ सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । . सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ २ यतोऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्मः । ३ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिदुख भाग्भवेत् ।। षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जन-परम्परा की परिलब्धियाँ
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0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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