Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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विज्ञान जैन ग्रन्थों में मौलिकता लिए है। इसे ही लक्ष्य कर गीता में सम्भवतः यह पंक्ति लिखी गई । होगी कि स्व अपने (आत्मा के) धर्म पर जाना अच्छा है परन्तु पर अन्य (शरीर के) धर्म को स्वीकारना | निरापद नहीं है। जितने या अर्हन्त सिद्ध हुए वे सभी भेदविज्ञान के कारण हुए। अल्पज्ञानी शिवभुति । ने भेदविज्ञानी होकर मोक्ष पा लिया, पर बहुज्ञानी अभव्यसेन भेदविज्ञान बिना संसार की ही शोभा या बढ़ाते रहे । लोक जीवन में भी भेद-विज्ञान का अपना महत्व है।
१२. षटखण्डागम का दोहन करके आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड ग्रन्थ लिखे । जीव ८ काण्ड में जीब की परिभाषा आचार्य श्री ने यह लिखी-जो अतीत में जीता था, वर्तमान में जी रहा है, अनागत में जीवेगा, वह जीव है । जीव के स्वरूप को मार्गणा अधिकार की एक गाथा के माध्यम से संक्षेप में इस प्रकार भी समझा-समझाया जा सकेगा कि
(१) गति-नरक-तियञ्च, मनुष्य-देव गति के अतिरिक्त सिद्ध गति में भी जीव हैं । (२) इन्द्रिय-एक इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय तक के जीव इसमें आते हैं । (3) काय-औदारिक-वैक्रियक-आहारक-तैजस-कार्माण शरीर वाले जीव हैं। (४) योग-मन-वचन-काय योग वाले जीव हैं । सभी जीव ४ से १० प्राण वाले हैं। (५) वेद- स्त्रीवेद, पुवेद और नपुसकवेद वाले जीव हैं । अन्य वेदी नहीं है।
(६) कषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ कषाय वाले जीव हैं । ८, १६ और २५ कषाय वाले जीव हैं । अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, संज्वलन कषाय वाले जीव हैं । कषाय करने वाले नहीं बल्कि निष्कषाय जीव शीघ्र मुक्ति पाते हैं।
(७) मति, श्र त-अवधि-मनः पर्याय और केवलज्ञान वाले भी जीव है । दो ज्ञान मति-श्रुत सभी के होते हैं । एक जीव के अधिक से अधिक चार ज्ञान होते हैं ।
(८) संयम-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के अनुसार यथोचित संयम रखते हैं।
(६) दर्शन-अपनी योग्यतानुसार चक्ष दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन वाले भी जीव ही हैं । ज्ञान से पहले दर्शन होता ही है ।।
(१०) अपने कर्मानुसार कषाय और योगमूलक छह लेश्यायें भी जीवों के ही होती हैं । लेश्याओं के नाम कृष्ण-नील-कापोत-पीत-पद्म-शुक्ल हैं। लेश्या के दो भेद हैं -एक द्रव्यलेश्या दूसरी भावलेश्या। भावलेश्या द्रव्यलेश्या से जल्दी बदलती है।
(११) भव्य-वह है जो सम्यग्दृष्टि है जिसे मुक्तिश्री मिलने की सम्भावना है । जीवत्व, भव्यत्व अभव्यत्व इन तीन भावों वाले भी जीव ही हैं।।
(१२) सम्यक्त्व-चारों गतियों में अपने साधनों की अपेक्षा लिए सम्भव है। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तीन भेद सम्यक्त्व के हैं।
(१३) संज्ञी -संज्ञी (सैनी/समनस्क) असंज्ञी (असैनी/अमनस्क) भी जीव हैं।
(१४) आहार-आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास भाव मन पर्याप्ति वाले भी जीव ही हैं। कर्म नोकम जैसे आहारों वाले जीव ही हैं । आहार करने वाले और आहार न करने वाले भी जीव
(शेष पृष्ठ ४७४ पर) १ स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः । १२ गइ इंदियेसु काये जोगे वेद कसाय णाणे य । संजमदंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ।
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ
0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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