Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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ध्यान : एक विमर्श
- डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य
यों तो सभी धर्मों और दर्शनों में ध्यान, समाधि या योग का अल्पाधिक प्रतिपादन है । योगदर्शन तो उसी पर आधृत है और योग के सूक्ष्म चिन्तन को लिए हुए है । पर योग का लक्ष्य अणिमा, महिमा, वशित्व आदि ऋद्धियों की उपलब्धि है और योगी उनकी प्राप्ति के लिए योगाराधन करता है । योग द्वारा ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयोजन भी लौकिक प्रभाव दर्शन, चमत्कार - प्रदर्शन आदि है । मुक्ति-लाभ भी योग का एक उद्देश्य है । पर वह योग दर्शन में गौण है ।
जैन दर्शन में ध्यान का लक्ष्य मुख्यतया आध्यात्मिक है । और वह है आत्मा से चिर-संचित कर्ममलों को हटाना और आत्मा को निर्मल बनाकर परमात्मा बनाना । नये कर्मों को न आने देना और संचित कर्मों को छुड़ाना इन दोनों से कर्ममुक्ति प्राप्त करना ध्यान का प्रयोजन है । यद्यपि योगी को योग के प्रभाव से अनेकानेक ऋद्धियाँ सिद्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । किन्तु उसको दृष्टि में वे प्राप्य नहीं हैं, मात्र आनुषङ्गिक है । उनसे उसका न लगाव होता है और न उसके लिए वह ध्यान करता है । वे तथा स्वर्ग आदि की सम्पदाएँ उसे उसी प्रकार प्राप्त होती हैं जिस प्रकार किसान को चावलों के साथ भूसा अप्रार्थित मिल जाता है । किसान भूसा को प्राप्त करने का न लक्ष्य रखता है और न उसके लिए प्रयास ही करता है । योगी भी योग का आरावन मात्र कर्म-निरोध और कर्म - निर्जरा के लिए करता है । यदि कोई योगी उन ऋद्धि-सिद्धियों में उलझता है - उनमें लुभित होता है तो वह योग के वास्तविक लाभ से वचित होता है । तत्त्वार्थ सूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ ने स्पष्ट लिखा है कि तप ( ध्यान ) से संवर (कर्मास्रव निरोध) और निर्जरा ( संचित कर्मों का अभाव ) दोनों होते हैं । आचार्य रामसेन ने भी अपने तत्त्वानुशासन में ध्यान को संवर तथा निर्जरा का कारण बतलाया है । संवर और निर्जरा दोनों से कर्माभाव होता है और समस्त कर्माभाव ही मोक्ष है । इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन में ध्यान का आध्यात्मिक लाभ मुख्य है ।
ध्यान की आवश्यकता
ध्यान की आवश्यकता पर बल देते हुए द्रव्य संग्रहकार नेमिचन्द्र सिद्धान्ति देव ने लिखा है कि 'मुक्ति का उपाय रत्नत्रय है और वह व्यवहार तथा निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है । यह दोनों
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१ 'आस्रवनिरोधः संवर:', 'तपसा निर्जरा च ' -त. सू. ६-१, ३ ।
२ ' तद् ध्यानं निर्जरा हेतुः संवरस्य च कारणम् ' -- तत्वानु. ५६ ।
३ ' बन्धहेत्वभाव - निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः । ' - त. सू. १०-२ ।
४ दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदिजं मुणी नियमा ।
तम्हा
पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ||
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन- परम्परा की परिलब्धियाँ
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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-- द्रव्य सं. ४७
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