Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जब अपना स्वार्थ दूसरों पर हावी होना चाहता है, तब व्यक्ति तिलमिला उठता है । मित्र भी शत्रु-सा प्रतीत होने लगता है । ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आस्था का दीपक जलाना होगा। स्वार्थों और विचारों की विविधता में समानता का सौरभ महक उठेगा । उदारमना सहिष्णु होता है । इसके लिए वह विवश नहीं सहज होता है । अस्तु आक्रमण की बात ही नहीं आती। इस वृत्ति से अभय से की पय स्विनी बहने लगती है और जन-जन स्नेह-सिक्त हो जाता है। अभय और अनाक्रमण से विश्वास पनपता है। विश्वास मैत्री का आधार है, पुष्ट पोषक भी। दैहिक कष्टों को सहना शूरवीर जानते हैं किन्त वैचारिक असमानता को सहने वाले विरले होते हैं। सहना महानता की अनुपम कसौटी है। महात्मा ईशु ने संसार के लिए यह उपदेश दिया कि अपने शत्रु से भी प्यार करो। भगवान महावीर ने | कहा कि किसी को अपना शत्र ही मत समझो। असल में, किसी को शत्र न मानकर सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करना उत्तम है । उपचार होने से पूर्व रोग न होने देना अच्छा है।
मतभेद विचारों का हो या फिर आचार-विचार में मनमुटाव । वह पति-पत्नी में हो, पडौसीपडौसी में हो, जाति-जाति में हो, धर्म-धर्म में हो या राज्य-राज्य में हो, यदि उसमें सहि और सामंजस्य का तालमेल बैठ गया है तो क्या कहने ? जनाब ! आप सोच की खिड़की तो खोलिए । 'ताल' और 'मेल' शब्दों की गहराई में उतरिए । सचमुच, अपने विश्वास पर दृढ़, मजबूत रहते हुए भी दूसरे के विश्वास का आदर करके तो देखिए कि फिर हमारा जीवन आनन्द की वर्षा से भींग जाएगा।
(शेष पृष्ठ ४४८ का) ५ अनेक पहलू पर विचार करने और अन्ततः निचोड़ में अधिक हित की विद्यमानता का सार्वबोध कराता है।
आज के इस विषम वातावरण में अनेकान्तवाद की अहं आवश्यकता है। यद्यपि आज का व्यक्ति प्रगतिशील है किन्त उसकी यह प्रगति केवल भौतिक सख-साधनों में होने वाली वृद्धि तक ही सीमित है। आज आम आदमी सम्पन्नता को शायद प्रगति का प्रतीक मान बैठा है । पर यर्थात् उससे भी ऊपर उठा हुआ सत्य है कि 'प्रगति' केवल बाह्य सुख-साधनों का संचय करना ही नहीं है अपितु आन्तरिक आत्म-प्रदेश में भी जागृति लाना है। केवल लड-लड़कर अपने अस्तित्व की परिधि को समाप्त करना निरी-नादानी नहीं तो और क्या है ? हम किसी तथ्य के एक पहलू को ही ठीक और केवल ठीक मानकर अहम् के उच्च शिखर तक पहुँच गये हैं । कब टूटकर गिर जायें, इसका ज्ञान तो शायद हमें नहीं। है पर अपने ही ढोल की आवाज को व्यापक और सघन मान बैठना तो अपनी ही भूल होगी न ! अनेकान्त, अन्यों के विचारों को सुनने, समझने तथा उपयुक्तता की तह तक पहुँचने का मार्ग सुझाता है। तब व्यक्ति खण्ड-खण्ड नहीं अपितु अखण्डित होने की ओर उन्मुख होने लगता है। अतः यदि विवाद १ और हिंसा जैसी समस्या सुलझाना है तो हमें निश्चित ही अनेकान्तवाद की शरण में जाना होगा । शायद
वही अभीष्ट भी होगा।
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षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा को परिलब्धियाँ | साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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