Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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कार का धर्म - व्यापार - धर्मोपासना के वे सभी उपक्रम योग हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में योग का आशय आसन, ध्यान आदि से है ।
योगदृष्टि समुच्चय में सामर्थ्ययोग के योगसंन्यास नामक भेद का स्वरूप समझाते हुए लिखा है
अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदाहृतः । मोक्षयोजनभावेन, सर्वसन्यासलक्षणः ॥
यहाँ योग को मोक्षयोजनभाव के रूप में व्याख्यात किया है । अर्थात् वह आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, वह आत्मभाव का परमात्मभाव के साथ योजक है । यह योजकत्व ही योग की वास्तविकता है ।
इस श्लोक में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यहाँ योग द्वारा अयोग प्राप्ति - योगराहित्य स्वायत्त करने का संकेत किया गया है । अर्थात् यहाँ योग द्वारा ध्यान आदि आत्म-साधना के उपक्रमों, उपायों द्वारा योग - मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध कर अयोग योगरहित बन जाने का भाव उजागर हुआ है । आत्मा की वह सर्वोत्तम उन्नतावस्था है, जहाँ वह ( आत्मा ) सर्वथा अपने स्वरूप स्वभाव में सम्प्रतिष्ठ हो जाती है । स्वरूप- सम्प्रतिष्ठान के पश्चात् कुछ करणीय बच नहीं जाता । वहाँ कर्त्ता, कर्म और क्रिया की त्रिपदी ऐक्य प्राप्त कर लेती है । वह आत्मा की देहातीता वस्था है, सहजावस्था है, परम आनन्दमय दशा है, योगसाधना की सम्पूर्ण सिद्धि है । सभी प्रवृत्तियाँ, जिनका देह, इन्द्रिय आदि से सम्बन्ध है, वहाँ स्वयं अपगत हो जाती है । यह योग द्वारा योगनिरोधपूर्वक अयोग की उपलब्धि है । अयोग ही योगी का परम लक्ष्य है । यह तब सधता है, जब नैश्चयिक दृष्टि से आत्मा में ज्ञान की अविचल ज्योति उद्दीप्त हो जाती है, निष्ठा का सुस्थिर सम्बल स्वायत्त हो जाता है। तदनुरूप साधना सहज रूप में अधिगत हो जाती है ।
१. योगबिन्दु १७६-७८ ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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योग का अधिकारी कौन हो सकता है, इस सम्बन्ध में हरिभद्र ने जो तात्त्विक समाधान दिया है, वह उनकी गहरी सूझ का एवं जैन दर्शन की मर्मज्ञता का सूचक है । उन्होंने लिखा है
अहिगारी पुण एत्थ विन्नेओ अपुणबंधगाइत्ति । तह तह नियत्तपयई अहिगारोऽगभेओ त्ति ॥६॥
अपुनर्बन्धक - चरम पुद्गलावर्त में अवस्थित पुरुष योग का अधिकारी है, ऐसा जानना चाहिये । कर्म प्रवृत्ति की निवृत्ति - कर्म - पुद्गलों के निर्जरण की तरतमता से प्रसूत स्थितियों के अनुसार गुणनिष्पन्नता की दृष्टि से उसके अनेक भेद हो सकते हैं ।
अध्यात्म जागरण की प्रक्रिया के अन्तर्गत योगबिन्दु' में भी यह प्रसंग विशद रूप में चर्चित हुआ है ।
अपुनर्बन्धक तथा चरम पुद्गलावर्त के सन्दर्भ में जैन दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीव अनादिकाल से शरीर, मन, वचन द्वारा संसारस्थ पुद्गलों का किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन करता आ रहा है । कोई जीव विश्व के समस्त पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन कर चुकता है - सबका भोग कर लेता है, वह एक पुद्गल परावर्त कहा जाता है ।
यह पुद्गलों के ग्रहण -त्याग का क्रम जीव के अनादि काल से चला आ रहा है । यों सामान्यतः जीव इस प्रकार के अनन्त पुद्गल - परावर्ती में से गुजरता रहा है । यही संसार की दीर्घ श्रृंखला या चक्र है । इस चक्र में भटकते हुए जीवों में कई भव्य या मोक्षाधिकारी जीव भी होते हैं, जिनका कषायमान्द्य बढ़ता जाता है, मोहात्मक कर्म प्रकृति की शक्ति घटती जाती है । जीव का शुद्ध स्वभाव कुछकुछ उद्भासित होने लगता है । ऐसी स्थिति आ जाने पर जीव की संसार में भटकने की स्थिति
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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