Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जो व्यक्ति अर्थयोग एवं आलम्बन योग से रहित में ऐसा होता है. उसके साधुओं में साधुत्व का मूल ! है, जिसने स्थान-योग और ऊर्ण-योग भी नहीं साधा गुण ही नहीं रहता। है, उसका चैत्यवन्दनमूलक अनुष्ठान केवल कायिक वे स्त्रियों के समक्ष गाते हैं, अंटसंट बोलते हैं, IN चेष्टा है अथवा महामृषावाद है-निरी मिथ्या मानो वे अनियन्त्रित बैल हों। वे अशुद्ध आहार 0 प्रवंचना है, इसलिए अधिकारी-सुयोग्य व्यक्तियों को लेते हैं । जल, फल, पुष्प आदि सचित्त पदार्थ, 70 ही चैत्यवन्दन सूत्र का शिक्षण देना चाहिये । जो स्निग्ध व मधुर पदार्थ तथा लौंग, ताम्बूल आदि का || देशविरतियक्त हैं-आंशिक रूप में व्रतयक्त हैं. वे सेवन करते हैं। नित्य दो-तीन बार भोजन करते हैं। DS ही इसके सच्चे अधिकारी हैं। क्योंकि चैत्यवन्दन वे चैत्य. मठ आदि में निवास करते हैं। पजा सूत्र में "कायं वोसरामि" देह का व्युत्सर्ग करता हूँ, में आरम्भ समारंभ-हिंसा आदि सावध कार्य इन शब्दों से कायोत्सर्ग की जो प्रतिज्ञा प्रकट होती करते हैं, देव-द्रव्यों का भोग करते हैं। जिन-गृह है, वह सुव्रती के विरतिभाव या व्रत के कारण ही और शाला आदि का निर्माण करते हैं। घटित होती है-इस सत्य को भलीभांति समझ वे ज्योतिष बतलाते हैं, भविष्य कथन करते हैं, लेना चाहिये।
चिकित्सा करते हैं। मंत्र-टोना-टोटका करते हैंसाथ ही साथ इस सन्दर्भ में इतना और ज्ञातव्य जो कार्य पापजनक हैं, नरक के हेतु हैं। है कि देशविरत से उच्च सर्वविरत साधक तत्त्वतः संबोध-प्रकरण के इस वर्णन से साध-संस्था की इसके अधिकारी हैं तथा देश विरति से निम्न स्थान- हीयमान चारित्रिक स्थिति का पता चलता है । वे, या वर्ती अपुनर्बन्धक या सम्यक्दृष्टि व्यवहारतः इसके जैसा पहले संकेत किया गया है, चैत्यों में आसक्त अधिकारी माने गये हैं।
थे । चैत्यवंदन के नाम पर अपने आपको धार्मिक आ० हरिभद्र को योग जैसे विषय के अन्तर्गत सिद्ध करने के सिवाय उनके पास चारित्र्य नाम की चैत्यवन्दन जैसे विषय को इतने विशद रूप से कोई वस्तु बच नहीं पायी थी । उनको सन्मार्ग पर व्याख्यात करना, प्रस्तुत विषय से सम्पृक्त करना, लाने के लिए हरिभद्र ने चैत्यवन्दन के साथ योग को क्यों आवश्यक प्रतीत हुआ, इसका एक कारण है। जोड़ा है । जहाँ योग नहीं, वहाँ चैत्यवन्दन की वह युग चत्यवासियों का युग था, जिनमें आचार- प्रक्रिया नितान्त स्थूल है, बाह्य है। उससे धर्म की
शुन्यता व्याप्त हो रही थी, जो केवल साधुत्व का आराधना कभी सध नहीं सकती। - वेष धारण किये हए थे, साधुत्व के नियमों का बिल- आ० हरिभद्र केवल एक महान ग्रन्थकार ही का
कल पालन नहीं करते थे, चैत्यों में निवास करते थे नहीं थे, वे एक क्रान्तिकारी धर्मनायक भी थे। KI और उनका धर्म लगभग चैत्यवन्दन तक ही सीमित अस्त-निश्चय ही योग के क्षेत्र में आ० हरि
हो गया था। साधु समाज की इस अधःपतित दशा भद्र की वह महान देन है, जो सदा स्मरणीय रहेगी। से आ० हरिभद्र बड़े चिन्तित थे। उन्होंने उनको प्रस्तुत निबन्ध में योगशतक और योगविशिकाजगाने के लिए संबोध-प्रकरण नामक ग्रन्थ की
उनकी दो प्राकृत कृतियों के आधार पर जो कहा + रचना की । वहाँ उनके आचार आदि के बारे में गया है, वह तो एक संकेत मात्र है। आशा है, लिखा है
प्रस्तुत विषय विद्वज्जन को गहन अनुशीलन और | वे साधु भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे, सुन्दर, अनसंधान की दिशा में प्रेरित करेगा। धूपवासित वस्त्र धारण करते हैं। जिस श्रमण संघ १. योगविशिका १७।
२. योगविशिका १८। ३. संबोध प्रकरण ४६, ४६, ५७, ६१, ६३ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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