Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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- भारतीय स्वातन्त्र्यान्दोलन की अहिंसात्मकता में
महावीर के जीवन दर्शन की भूमिका
-प्रह्लाद नारायण बाजपेयी (साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर)
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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम ब्रिटिश साम्राज्य की निरंकुश एवं नृशंस सत्ता के विरुद्ध देश के 3 कोटि-कोटि जन की अन्तरात्मा का संघर्ष था । असत् के विरुद्ध जैसे सत् का संघर्ष था । यह भौतिकता के
चरमोत्कर्ष का सामना करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति का शंखनाद था। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध गूंजने वाला जनता जनार्दन का शाश्वत निनाद था। सच तो यह है कि अन्धकार के विरुद्ध यह
का संघर्ष था, आलोक का जागरण था। हिंसा और आतंक के विरुद्ध अहिंसा का संघर्ष था। यही कारण है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम ने मानवता के परम्परागत इतिहास में आत्मशुद्धि के । माध्यम से अहिंसा के शस्त्र द्वारा किसी युद्ध को जीत कर एक नये अध्याय की रचना को है जिससे विश्वशान्ति की रचना का स्वप्न साकार किया जा सकता है।
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शस्त्र की भांति प्रयोग की गई अहिंसा तीर्थंकर महावीर के जीवन दर्शन से प्रभावित है जो मानव मंगल के किसी भी अभियान के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है । g) तीर्थकर महावीर ने आत्मा की विकास यात्रा में आत्म-दमन के चरम बिन्द पर अहिंसा के जि
| विकास यात्रा में आत्म-दमन के चरम बिन्दु पर अहिंसा के जिस आलोक का निर्माण किया। उसी को आदर्श मानकर स्वतन्त्रता संग्राम में अहिंसात्मक आन्दोलन को तेजस्विता ने सामाजिक मर्यादाओं में सार्वजनिक चैतन्य के माध्यम से बहुजनहिताय एवं बहुजनसुखाय की जिजीविषा का निर्माण कर लक्ष्य सिद्ध कर दिखाया। अहिंसा व्यक्ति के लिए परम धर्म है किन्तु समष्टि के लिए अहिंसा का समाजीकरण स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिंसा की सम्भावना मात्र से आन्दोलनों को स्थगित किये जाने की परम्परा के निर्वाह द्वारा सम्पन्न किया गया है।
मर्यादाहीन एवं उच्छृखल जोवन में समरसता एवं शान्ति लाने के लिए अहिंसा ही वह आधार) शिला है जिस पर परमानन्द का प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। अहिंसा के परिपार्श्व में तीर्थंकर 3) महावीर ने बताया कि प्राणी मात्र जीना चाहता है, कोई मरना नहीं चाहता। सुख सभी के लिए अनुकूल हैं एवं दुःख सभी के लिए प्रतिकूल है ।।
___ स्वतन्त्रता आन्दोलन में इसी के आधार पर यह स्वर प्रखर होकर नारा बना था-हम मारेंगे नहीं किन्तु हम मानेंगे भी नहीं। साथ ही यह धारणा भी विकसित हुई थी-पाप से घृणा करो, पापी से नहीं । संघर्ष के लिए यह दृष्टिकोण अपनाया गया-हमें ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता के विरुद्ध संघर्ष
१ आचा० १/२/३ ।
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा को परिलब्धियाँ HOROID साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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