Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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शीय मार्ग में यात्रा करते समय पर्याप्त प्रदूषण बिखेर देते हैं । बड़े-बड़े कारखानों से निकलने वाली गैसीय दुषित हवाओं ने तो पृथ्वी के निकटस्थ आकाश को ही दूषित किया है परन्तु इन आग्नेयास्त्रों तथा रासायनिक मारकों ने पृथ्वी से बहुत ऊपर व्यापक क्षेत्र में प्रदूषण फैलाया है, जिनका प्रभाव सदियों तक रह सकता है ।
आज हमारी मानसिक शान्ति नष्ट हो गई है। सड़कों पर वाहनों की कर्कश आवाज, कारखानों में थका देने वाली यांत्रिक ध्वनि, उद्यानों, मंदिरों तथा खुले स्थानों पर ध्वनि प्रसारक यन्त्रों से निकलने वाले विविध प्रकार की गीतमय, अगीतमय, तथा कर्कश स्वर और घर पर आइये तो रेडियो, टेलीविजन अथवा टेपरिकार्डर आदि से प्रसारित होने वाले गाने । इन सब पागल कर देने वाली आवाजों में बच्चों की तुतलाती वाणी, पत्नी की मनुहार भरी शिकायत और भाई-बहनों या भाभी ननदों आदि के निश्छल हास-परिहास की आवाजें दब गई हैं । प्रार्थना, स्तवन तथा भजन तो अब टेप किये जा चुके हैं । उनमें भावों का तादात्म्य नहीं है, यांत्रिक एकरसता है । आज ध्यान, मौन, शांति सब शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं। यह ध्वनि प्रदूषण हमारे स्नायु संस्थान पर दबाव डाल रहा है । अनेक प्रकार की मानसिक व्याधियों से हम ग्रस्त होते जा रहे हैं। आज हम बौद्धिक दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुके हैं, भौतिक सम्पदा के हम धनी हैं, उपभोग वस्तुएँ हमारे घरों में अटी पड़ी हैं परन्तु फिर भी अपने आपको अकिंचन पाते हैं । हमारी आत्मिक शान्ति नष्ट हो गई है । भविष्यशास्त्रियों का अनुमान है कि यदि इसी गति से हम प्राकृतिक स्रोतों का दोहन करते रहे तथा वातावरण में प्रदूषण फैलता रहा, तो यह पृथ्वी इक्कीसवीं शताब्दी भी शायद ही सुखपूर्वक पूरी कर सके। पर्यावरण को और अधिक न बिगड़ने देने तथा जो कुछ अब तक बिगड़ चुका है, उसकी क्षतिपूर्ति के लिए अब विश्व समाज सोचने लगा है । भारत सरकार भी इस ओर सचेष्ट हुई है तथा केन्द्र सरकार में पर्यावरण संरक्षण का एक पृथक मंत्रालयी विभाग बना है । यह चेतना तो ठीक है परन्तु जब तक पर्यावरण संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का सहज आचरण नहीं बन जाता तब तक इस दिशा में प्रगति संभव नहीं है । गृहस्थों के लिए निर्धारित जैनाचार संहिता पर्यावरण संरक्षण में बहुत बड़ा योगदान कर सकती | जैनाचार संहिता इतनी व्यापक है, तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक है कि उसका सर्वव्यापी प्रचार तथा अंगीकार करना अशान्त मानवता के लिए वरदान साबित हो सकता है। आइये, उनमें से कुछ पर विचार करें ।
जैन आचार संहिता का मूलाधार 'अहिंसा' है । सभी नैतिक आचरण अहिंसा से उद्भूत होते हैं और अहिंसा के मूल्य के अनुपूरक हैं । जैन अहिंसा मनुष्य जगत् तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसका प्रसार सभी चराचर जीवों तक व्याप्त है । पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु भी जीवों की परिधि में आ हैं । वनस्पति को तो जीवन माना ही जाता है । गृहस्थ मनुष्य के सन्दर्भ में अहिंसा के आचरण का अभिप्राय यही है कि मनुष्य अपने जीवनयापन की प्रक्रिया में जब अन्य जीवों के साथ अन्तक्रिया करता है, तो वह ऐसी होनी चाहिए कि अकारण किसी जीव को कष्ट न हो । जीवों की आवश्यक हिंसा उतनी ही की जाए, जितनी कि जीवन-निर्वाह के लिए अनिवार्य हो । प्राकृतिक जीवों से जितना लिया जाए उतना प्रतिदान के रूप में उन्हें लौटाया भी जाए तथा जीवनचर्या को ऐसी बनाया जाए कि यदि अपने जीव- निर्वाह के लिए हम अन्य जीवों पर आश्रित हैं, तो कुछ जीव हम पर भी निर्भर हैं । हम स्वयं भी जिएँ तथा दूसरों को भी जीने दें क्योंकि
सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउ । तम्हा पाणिवहं घोरं निगंथा वज्जयन्ति णं ॥
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन - परम्परा की परिलब्धियाँ
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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- दसवेआलिय ६ / ११
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