Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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सन्तुलन को पुनः कायम करने के लिए मानवीय संस्कृति में एक भूचाल आता है । इतिहास में इस प्रकार के उदाहरणों की कमी नहीं है । दूसरी ओर जब मनुष्य प्रकृति, स्थावर जीव, संज्ञी जीव, असंज्ञी जीव, अजीव सबके साथ “परस्परोपग्रह " भावना से संस्कारयुक्त जीवन जीता है, तब प्रकृति फलती फूलती है, मनुष्य तथा अन्य सभी जीव सुखपूर्वक जीते हैं और सृष्टि सन्तुलित रूप से संचालित होती है । आज पुनः मानवीय संस्कृति का झुकाव भोगवाद की तरफ है ।
मनुष्य यदि अपनी भोग वृत्ति को थोड़ा संयत कर दे, तो प्रकृति का चक्र स्वतः ही अपनी सहज गति में आ जायेगा । यदि वन रहेंगे तो स्वेच्छाचारी शाकाहारी पशु भी रहेंगे और उनकी संख्या को सीमित करने वाले हिंसक वन्य पशु भी रहेंगे और ये पशु रहेंगे तो परिस्थितिक (Ecological ) सन्तुलन भी बना रहेगा परन्तु इनको कायम रखने के लिए मनुष्य को अपनी शिकार वृत्ति पर नियन्त्रण रखना होगा, छोटे प्राणियों को भी बचाना होगा, वनस्पति की भी रक्षा करनी होगी और इनके नव-प्रजनन तथा वृद्धि के लिए आवश्यक जलाशय, आर्द्रता, हरीतिमा, पहाड़ों की गुफाएँ इन सबको अक्षत रूप में जिन्दा रखना होगा । अनाज की रक्षा हेतु चूहों को मारने की झुंझलाहट में हम यह भूल जाते हैं कि चूहों के न रहने से कीड़े भी तो परेशान करेंगे और सांपों का तथा बिल्लियों का भोजन आपने छीन लिया, तो यह अन्य प्रकार के उत्पात मचायेंगे । यदि ये भी मर गये, तो जीवन चक्र की गति में और झटके आने लगेंगे । एक ओर मत्स्य उत्पादन तथा वृद्धि के लिए जलाशयों में मत्स्य बीज डाले जाते हैं, और दूसरी ओर मछली पकड़ने वाले ठेकेदारों ने ऐसी युक्तियाँ निकाल ली हैं कि अल्प समय में ही सभी मछलियाँ पकड़ ली जायें और जलाशय की प्राकृतिक स्वच्छता प्रक्रिया को समाप्त कर दिया जाये । अब आगामी ऋतु में वर्षा हो तो पुनः मछलियाँ आयें और जल की स्वच्छता प्रक्रिया पुनः आरम्भ हो । तब तक जल के अन्य जन्तु भी मरें, पशु-पक्षी भी विवशतापूर्वक इस निर्जीव पानी से ज्यों-त्यों जीवन गुजारें ।
मनुष्य की भोगवादी संस्कृति ने बड़ी-बड़ी फेक्ट्रियों को जन्म दिया, जो प्राकृतिक सम्पदा का इतनी तेज गति से दोहन करती हैं कि प्राकृतिक विधि से उनका पुनः संस्थापन नहीं हो पाता । यह बात केवल खनिज सम्पदा तक ही सीमित नहीं है अपितु भूमि से उत्पादित अन्न तथा भूमिगत जल के बारे में भी उतनी ही सही है । हमारी नगरीय संस्कृति में रहन-सहन के तरीकों में जिस प्रकार का परिवर्तन आया है, उससे हमारा जल उपभोग पहले की तुलना में आज दस गुना बढ़ गया है। दूसरी ओर बड़ी फेक्ट्रियों में भी शुद्ध पेय जल प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त होता है । स्थान-स्थान पर बांध बंध जाने से नदियाँ सूखी पड़ी हैं । अब लोगों की कुदृष्टि भूमिगत जल पर पड़ी है। उसे भी विद्युत शक्ति द्वारा इतनी तेजी से बाहर निकाला जा रहा है कि प्राकृतिक आपूरण शक्ति उसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर पाती । वनों के कटने से तथा पारिस्थितिकी समन्वय के विषम हो जाने से वर्षा ने भी अपना रुख बदल लिया है । कहीं अकाल वर्षा है, कहीं बाढ़ें आ रही हैं और कहीं सूखा पड़ रहा है । वर्षा की कमी अधिकांश भागों में अनुभव की जा रही है ।
जल और भूमि का शोषण करने के बाद हमारी भोगवादी संस्कृति अन्तरिक्ष की ओर बढ़ी है । आये दिन भूमि से अन्तरिक्ष में छोड़े जाने वाले रॉकेट, उपग्रह तथा खोजी यानों के द्वारा अन्तरिक्ष
दूषित गैसें भर गई हैं और उनकी प्रतिक्रिया अन्य ग्रहों पर होना आरम्भ हो गई है । हमारे युद्धोन्माद तथा एक-दूसरे की भूमि सम्पदा हड़प कर अन्य मनुष्यों को पराधीन बनाने की दूषित मनोवृत्ति ने अनेक आणविक, आग्नेय तथा रासायनिक अस्त्र-शस्त्रों को जन्म दिया है जो स्वचालित होने के साथ आका
षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन- परम्परा की परिलब्धियाँ
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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