Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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हाकार नीति- इस नीति का प्रचलन कुलकर विमलवाहन के समय हुआ । इस नीति के अनुसार अपराधी को खेदपूर्वक प्रताड़ित किया जाता था'हा !' अर्थात् - तुमने यह क्या किया ? देखने में यह केवल शब्द - प्रताड़ना है किन्तु यह दण्ड भी उस समय का बहुत बड़ा दण्ड था । इस 'हा' शब्द से प्रताड़ित होने मात्र से ही अपराधी पानी-पानी हो जाता था । इसका कारण यह था कि उस समय का मनुष्य वर्तमान काल के मनुष्य की भाँति उच्छृंखल एवं मर्यादाहीन नहीं था । वह तो स्वभाव से संकोची और लज्जाशील था । इसलिए इस 'हा' वाले दण्ड को भी वह ऐसा समझता था मानो उसे मृत्युदण्ड मिल रहा हो । 1 यह नीति कुलकर चक्षुष्मान के समय तक बरावर चलती रही ।
माकार नीति - कोई एक प्रकार की नीति स्थाई नहीं होती है । यही बात प्रथम 'हाकार' नीति के लिए भी सत्य प्रमाणित हुई । 'हाकार' नीति जब विफल होने लगी तो अपराधों में और वृद्धि होने लगी, तब किसी नवीन नीति की आवश्यकता अनुभव को जाने लगी । तब चक्षुष्मान के तृतीय पुत्र कुलकर यशस्वी ने अपराध भेद कर अर्थात्छोटे-बड़े अपराध के मान से अलग-अलग नीति का प्रयोग प्रारम्भ किया । छोटे अपराधों के लिए तो 'हाकार नीति' का ही प्रयोग रखा तथा बड़े अपराधों के लिए 'माकार नीति' का प्रयोग आरम्भ किया । 2 यदि इससे भी अधिक कोई अपराध करता तो ऐसे अपराधी को दोनों प्रकार की नीतियों से दण्डित करना प्रारम्भ किया ।" 'माकार' का अर्थ था - 'मत करो ।' यह एक निषेधात्मक महान दण्ड था । इन दोनों प्रकार की दण्डनीतियों से व्यवस्था पन कार्य यशस्वी के पुत्र 'अभिचन्द्र' तक चलता रहा ।
१ जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, कालाधिकार, ७६ २ स्थानांगवृत्ति प. ३६६
३ त्रिषष्टिशलाका १/२/१७६-१७६
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धिक्कार नीति-समाज में अभाव बढ़ता जा रहा था । उसके साथ ही असन्तोष भी बढ़ रहा था । जिसके परिणामस्वरूप उच्छृंखलता और धृष्टता का भी एक प्रकार विकास ही हो रहा
था । ऐसी स्थिति में हाकार और माकार नीति से कब तक व्यवस्था चल सकती थी । एक दिन माकार नीति भी विफल होती दिखाई देने लगी और अब उसके स्थान पर किसी नई नीति की आवश्यकता प्रतीत होने लगी । तब 'माकार नीति' की असफलता से 'धिक्कार नीति' का जन्म हुआ । यह नोति कुलकर प्रसेनजित से लेकर अन्तिम कुलकर नभिराय तक चलती रही। इस 'धिक्कार नीति' के अनुसार अपराधी को कहा जाता था - 'धिक्' अर्थात् तुझे धिक्कार है, जो ऐसा कार्य किया ।
जैन विद्या के सुविख्यात विद्वान उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ने अपराधों के मान से इन नीतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है
जघन्य अपराध वालों के किए 'खेद'
मध्यम अपराध वालों के लिए 'निषेध' और उत्कृष्ट अपराध वालों के लिए 'तिरस्कार' सूचक दण्ड मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे । "
कुलकर नाभि तक अपराध वृत्ति का कोई विशेष विकास नहीं हुआ था, क्योंकि उस युग का मानव स्वभाव से सरल और हृदय से कोमल था । "
अन्तिम कुलकर नाभि के समय में ही जब उनके द्वारा अपराध निरोध के लिए निर्धारित की गई धिक्कार नीति का उल्लंघन होने लगा और अपराध निवारण में उनकी नीति प्रभावहीन सिद्ध हुई, तब युगलिक लोग घबरा कर ऋषभदेव के पास आए और उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए सहयोग की प्रार्थना की।
४ स्थानांगवृत्ति प. ३६६
५
ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृष्ठ १२३ ६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार-सूत्र १४
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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