Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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शिक्षा द्वारा छात्रों में आत्म-सम्मान की भावना सकें कि उन्हें उपदेश देने का प्रयास किया जा की का विकास कर उन्हें आध्यात्मिक/धार्मिक दिशा रहा है।
हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। सभी धर्मों के प्रति भगवान महावीर ने नैतिक जागरण के लिए सहिष्णता तथा समान आदर भाव रखने हेतु छात्रों बौद्धिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन परिमार्जित को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। छात्रों के करने पर बल दिया था जिससे अहिंसा, अपरिग्रह सामने ऐसी समस्याएँ प्रस्तुत की जाएं, जिनसे वे और अनेकान्त के माध्यम से युद्ध, शोषण तथा सद्-असद् में अन्तर करना सीख सकें। चूंकि अनु- तनाव को समाप्त किया जा सके, शान्ति, समानता करण का बालकों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, और सह-अस्तित्व के वातावरण से मानव-कल्याण इसलिए अध्यापकों तथा माता-पिता को स्वयं नैतिक का मार्ग प्रशस्त हो सके। महाकवि रवीन्द्रनाथ नियन्त्रण के अन्तर्गत ही रहने का प्रयास करना ठाकूर ने विद्यार्थियों के लिए एक आचार संहिता चाहिए । यदि अध्यापक तथा पिता खुलेआम धूम्र- को अनिवार्य माना है। पान करता है तो छात्रों को उस कार्य से कैसे रोक सकेगा? और ऐसा करने से छात्रों पर नकारात्मक भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था विकसित की जाए प्रभाव ही पड़ेगा 'Action speaks louder than यदि हम अपने अतीत की ओर मुड़कर देखें तो tongue.' यह बात निर्विवाद सत्य है।
पायेंगे कि जिस भारतीय संस्कृति के गरिमामय
रूप पर हम आज भी गौरवान्वित अनुभव करते हैं विद्यालय में तथा माता-पिता की ओर से वह क्या था? और आज इससे हटकर हिंसा, तोड़- 728 बालकों में नई शिक्षा नीति द्वारा दिये गये 'राष्ट्रीय फोड, आन्दोलन, घेराव, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, पंचशील' के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया अनैतिकता, मल्यहीनता तथा दिशाहीनता की जाना अत्यधिक आवश्यक है। इन सिद्धान्तों से
स्थिति में हम क्यों फँसे जा रहे हैं? प्राचीन भारसम्बन्धित मूल्य स्वच्छता, सत्यता, परिश्रम, समा- तीय संस्कृति सदैव धार्मिक-नैतिक चेतना से | नता और सहयोग है।
अनुप्राणित रही है । मनुष्य में सात्त्विक वृत्तियों को 2 __ महाभारत में नैतिक शिक्षा के स्वरूप का संकेत
परत जाग्रत करके रजस-प्रभुत्व द्वारा कामनाओं तथा ) स्पष्ट है-'महाजनो येन गतः स पन्था' । बालकों
तृष्णाओं को नियन्त्रित कर तमस-अज्ञानांधकार को महापुरुषों के चारित्र्य का अनुसरण करना का उन्मूलन कर उसे ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ सिखाया जाए, न कि चरित्र का । आज तक शिक्षा बना
बनाती थी, समन्वय की ओर अग्रसर करती थी, में विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा मात्र चरित्र का ही
विजातीय संस्कृतियों को आत्मसात करना सिखाती अनुसरण करने का मन्तव्य स्पष्ट होता है, जबकि महापुरुषों के जीवन से मरने तक का इतिहास इतना सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी महान् सांस्कृतिक महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनके जीवन के प्रेरणास्पद, परम्पराओं को लेकर चलने पर भी हम संस्कृति से चरित्र-निर्माणकारी और लक्ष्यबोधक पावन प्रसंगों निरन्तर पिछड़ते गये और न तो सांस्कृतिक विराका समावेश । नैतिक शिक्षण में यदि यह कहा जाए सत का विकास ही कर पाए तथा न ही नवीन 'सत्य बोलो, मिलकर रहो' तो कभी भी सही प्रभाव जीवन मूल्य आयाम समाज को दे पाये। इसी ) नहीं दिखाई देगा अतः आवश्यक है।
भी कारण जीवन में भटकाव, बिखराव, स्खलन ही कहा जाये साहित्यिक मन्तव्य “कान्तासम्मित उप- अधिक हुआ है। आज हम आदर्शप्रधान संस्कृति देश युजे" अवश्य हो किन्तु श्रोता अनुभव न कर को भूलकर अर्थप्रधान संस्कृति को अपना चुके हैं। चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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