Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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श्रा मोह है : एसो सो पाणवहो पावो, चण्डो, रुद्दो... अधिकारलिप्सा और वित्तषणा ही हिंसा और Min मोह महब्भयत्तवहओ।
परिग्रह के हेतु है, 'गंथेहिं तह कसाओ, वड्ढइ और अहिंसा, समस्त जीवों विज्झाई तेहि विणा ।' आधुनिक समाजशास्त्र व के प्रति संयमपूर्ण आचरण-व्यवहार है-'अहिंसा मनोविज्ञान में भी क्रोध, मान, माया और लोभ निऊणा दिट्ठा, सव्व भूएस संजमो।' वे सदा यही का वैज्ञानिक पद्धति से निरूपण मिलता है । क्रोध सिखाते रहे कि मनुष्य का चरित्रात्मक आन्तरिक को ही लें। क्रोध प्रतिशोध माँगता है, वह मानरूपान्तरण मुख्य है, और इसके साधन है अहिंसा, सिक और शारीरिक संतुलन नष्ट कर देता है। सत्य, अपरिग्रह और समता। यही मानवतावाद भगवती सूत्र में इसकी विभिन्न अवस्थाओं का या समष्टिवाद की आधारशिला है। एक जैना- विवरण प्राप्त होता है। भगवान महावीर कहते चार्य का कथन है अहिंसा ही प्रमुख धर्म है, अन्य हैं क्रोध-उचित अनुचित का विवेक नष्ट करने तो उसकी सुरक्षा के लिए है-'अबसेसा तस्स रख- वाला है, वह प्रज्वलन रूप आत्मा का दुष्परिणाम णट्ठा ।' आध्यात्मिक चेतना की ऊर्ध्व गति से ही
आज मनोविज्ञान ने भी इस तथ्य को भलीसम्भव है--सनातन मूल्यबोध । वीर प्रभु ने इसी
भाँति उजागर कर दिया है। चरक ने तो यही 12 से शान्ति मार्ग पर चलने को कहा
बताया कि क्रोध आदि विकार से व्यक्ति ही नहीं,
उसके आसपास का वातावरण भी विकृत हो जाता बुद्ध परिनिव्वुडे चरे
है। व्यक्ति और समाज में सार्वदेशिक शान्ति तभी गाम गए नगरे व संजए।
सम्भव है जब हम अपनी जीवन प्रक्रिया में आमूल सन्ति मग्गं च बूहए
परिवर्तन करें । प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक इरिक बर्न का समयं गोयम ! मा पमायए। कथन है
- उत्तराध्ययन सूत्र १०/३६ 'मनुष्य की रचनात्मक जिजीविषा और संहारा- अहिंसा की साधना ही शान्ति का मार्ग है। वे त्मक विजीगिषा वह कच्चा माल है, जिसका आज | कहते हैं 'बुद्ध, तत्बज्ञ और उपशान्त होकर पूर्ण मनुष्य और संस्कृति को उपयोग करना है-समाज संयतभाव से गौतम ! गाँव एवं नगर में विचरण और मानवजाति की संरक्षा के लिए उसे संहारा- ७ कर । शान्तिपथ पर चल । अहिंसा का प्रचार कर। त्मक विजीगिषा समाप्त कर रचनात्मक जिजीविषा क्षण भर भी प्रमाद न कर ।' उन्होंने बताया कि को आध्यात्मिक व जागतिक समृद्धि में लगाना धर्महीन नीति समाज के लिए अभिशाप है और होगा।' नीतिहीन धर्माचरण केवल वैयक्तिक । धर्म व्यवहार व्यक्ति का मानसिक विकास और सामासे उत्पन्न है, ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण जिक शान्ति इस पर निर्भर करती है कि वह इन किया वे व्यवहार और आचरण ही अपेक्षित हैं। जन्मजात शक्तियों का किस उद्देश्य से प्रयोग करे। इस प्रकार महावीर ने अहिंसा को वृहत् और व्या- व्यक्ति का मानसिक संतुलन ही सामाजिक संतुलन का पक सामाजिक धरातल दिया। उनका विधान था का प्रथम चरण है। महावीर ने अपनी सारी शक्ति । 'चारित्तं धम्मो' सदाचार ही चारित्र धर्म है । व्यक्ति इसी में लगाई । उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त को of की हो, चाहे समाज या शासनतन्त्र की, हिंसा का मनुष्य या पशु हिंसा तक ही सीमित न रखकर
कारण भय और क्रोध है। जैनधर्म कषाय को समस्त सचराचर जगत पर, षटकाय जीवों पर, न! कालुष्य का कारण मानता है-आवेश, लालसा, जीवन के प्रत्येक पहलू और पक्ष पर अनिवार्य
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ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न कुसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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