Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जिसका मान (८४)31x (१०) वर्ष है । संख्यात, जटिल ग्रन्थ विद्यमान था। आचार्य नेमिचन्द्र असंख्यात एवं अनन्त के विभिन्न प्रकारों एवं उनके सिद्धान्त चक्रवर्ती (१०वीं शती) कृत त्रिलोकसार पारस्परिक सम्बन्धों को स्थापित किया गया है। में भी 'वृहत्तधारा' नामक धाराओं से सम्बन्धित अनेक प्रकार की आकृतियों के क्षेत्रफल, वृत्ताकार एक प्राचीन जैन ग्रन्थ की चर्चा है जो उस समय आकृति की परिधि, वृत्त खण्ड का क्षेत्रफल, वाण, तक उपलब्ध था, पर अब अनुपलब है। इतना जीवा एवं चापकर्ण के मान तथा विविध आकारों ही नहीं, भास्कर प्रथम (७वीं शताब्दो) कृत आर्यके सांद्रों के घनफल निकालने की छेद विधि का भटीय-भाष्य में भी पाँच प्राकृत गाथाएँ मिलती हैं विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है । समान्तर एवं जो अंकगणित सम्बन्धी किसी प्राचीन प्राकृत ग्रंथ गुणोत्तर श्रेणियों से सम्बन्धित सूत्रों के साथ-साथ से उद्ध त हैं । सम्भवतः वह किसी जैनाचार्य की ही तत्सम्बन्धी उदाहरण भी दिए गए हैं। साथ ही कृति होंगी। भास्कर प्रथम की रचना से यह भी पाई (ग) का जैन परम्परानुसार स्थूल मान ३ और ज्ञात होता है कि मस्करि, पूरण, मृद्गल, पूतन सूक्ष्म मान । १० स्वीकार किया गया है। सबसे आदि गणितज्ञों ने आठ व्यवहारों में से प्रत्येक पर बड़ी विशेषता यह है कि विविध गणितीय प्रक्रियाओं स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की थी। सम्भावना है, को संकेतों के माध्यम से व्यक्त किया गया है । कि इनमें से कुछ प्राचीन जैनाचार्य ही हों। इस
इन आगम ग्रंथों में गणितीय सिद्धान्तों के अति- तरह गणित सम्बन्धी अनेक प्राचीन जैन ग्रन्थों के रिक्त कुछ प्राचीन ग्रंथों की ऐसी गाथाओं को भी सम्बन्ध में यत्र-तत्र सूचना मिलती है, पर दुःख है
उद्ध त किया गया है जो गणित की विभिन्न शाखाओं कि वे सभी अभी उपलब्ध नहीं हैं। A से सम्बन्धित हैं । धवला टीका में तो कुछ ऐसे ग्रन्थों उपरोक्त सूचनाओं से स्पष्ट है कि ५वीं |
का नामोल्लेख भी है-अग्गयणिय, दिठिवाद, शताब्दी ई. पू. से ५वीं शताब्दी इस्वो तक की अवधि परिकम्म, लोयविणिच्छय, लोकविभाग, लोगाइणि में रचित प्रमुख जैन आगम ग्रन्थों में गणित की
आदि । धवला में ही 'परियम्म-सूत'-प्राकृत विभिन्न शाखाओं से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सिद्धान्तों गद्यमय ग्रन्थ की चर्चा है जिससे कई गाथाएँ उद्ध त का प्रतिपादन एवं अनेकों सूत्रों का उपयोग किया की गई हैं। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ गया है । इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इन गणित एवं करणानुयोग से सम्बन्धित है। आचार्य गणितीय सिद्धान्तों का ज्ञान यहाँ के लोगों को यतिवृषभ ने एक करण-सूत्र नामक ग्रन्थ का उल्लेख बहुत पूर्व में ही हो गया था। साथ ही इन ग्रन्थों किया है । इसी तरह 'करण भावना' नामक एक से इसका भी आभास मिलता है कि आलोच्य और जैन ग्रंथ की चर्चा है। वीरसेनाचार्य (हवी अवधि में गणित के स्वतन्त्र ग्रन्थ भी भारत में शती) की सिद्धभूपद्धति पर लिखी टीका से ज्ञात लिखे जा चुके थे जो प्रायः वर्तमान समय में अनुपहोता है कि उनके समय तक क्षेत्रगणितविषयक कोई लब्ध हैं । इस तरह भारतीय गणित के अंध गयु में १ लक्ष्मीचन्द जैन, वही, पृ. २१-२७ एवं अनुपम जैन, दार्शनिक गणितज्ञ आ० यतिवृषभ, वही, पृ० १७-२४ २ लक्ष्मीचन्द जैन, संदर्भ-५, प.ह ३ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल, जैन गणितीय साहित्य, अर्हत वचन, इन्दौर, अंक १, १९८८, पृ. ३१ ४ वही, पृ. २४-२५
५ वही, पृ. २४ ६ वही, पृ. २८-२६ एवं कृ. शं. शुक्ला (सं.) आर्यभटीय-भाष्य, दिल्ली, १९७६, पृ.५६ (इंट्रोडक्शन) ७ कृ. शं. शुक्ला, वही, पृ. ७ एवं ६७ एवं टी० ए० सरस्वती, ज्योमेट्री इन एंसिएंट एण्ड मेडियेवल इण्डिया,
दिल्ली, १९७६, पृ० ६६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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