Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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शोक-पश्चात्ताप अथवा 'शोक' की स्थिति खात न खरचत, विलसयत, दान दियन को बात । GND
भी जैन नीतिकारों ने अच्छी नहीं मानी। दूरजय लोभ अचित गति, सचित धन मर जात 1८३॥ लक्ष्मीचन्द कहते हैं कि शोक करने से व्यक्ति का
सामाजिक नीति-निश्चित भूभाग पर निश्चित सुख नष्ट हो जाता है । 'शोक' या 'पश्चात्ताप'
सामाजिक मर्यादाओं के साथ जीवन व्यतीत करने करने से बिगड़े काम में कोई सुधार भी नहीं हो
वाले व्यक्ति समाज का निर्माण करते हैं। भारतीय सकता
नीतिकारों ने गुरु, नारी, तथा सामाजिक व्यवहार सोच कब न कोज, मन परतीत लोज्यौ, आदि विषयों पर नीतिपरक उक्तियों अभिव्यक्त की मार तेरी सोच कीये, कह कारिज न सरिहै, है। सोच कीये दुष भास, सुष सब ही जन नासै
__ गुरु-निर्गुण एवं सगुण भक्ति काव्य की तरह
॥२५॥ जैन नीतिकारों ने गुरु का सर्वाधिक महत्व माना दष्कर्म-दष्कर्म के उदय मात्र से धार्मिक और है। गुरु ही मनुष्य को समाज में : सदाचार की बातें कतई नहीं सुहाती, इसी भय से जीने योग्य बनाता है। परम्परागत नीतिकारों की दुष्कर्म से बचते रहने की सीख कविवर बनारसीदास तरह बनारसीदास के गुरु पण्डित रूपचन्द गुरु का ने अपनी 'ज्ञान पच्चीसी' में दी है
महत्व इस प्रकार प्रकट करते हैंज्यों ज्वर के जोर से, भोजन की रुचि जाय। गुरु बिन भेद न पाइये, को पर को निज वस्तु । तैसें कुकरम के उदय, धर्म वचन न सुहाय ।।२।। गुरु बिन भव सागर विषै, परत गहै को हस्तु ।१७।
दुष्कर्म का एक छोटा अंश भी समस्त अच्छाइयों गुरु माता अर गुर पिता अरु बंधव गुरु मित्त । को उसी प्रकार खत्म कर देता है जिस प्रकार मीठे
हित उपदेश कवल ज्यों विगसावै जिन चित्त ६६ दूध को छाछ की एक बूंद खट्टा बना देती दुर्जन-सज्जन-समाज में भले-बुरे दोनों ही
प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं। तुलसीदास आदि टटा टपको छाछि को, मटकी दुध में डार। सभी प्रमुख कवियों ने प्रवृत्तियों के आधार पर मीठा सो षाटो करै, यहै कर्म विचारि । ११ ।कको. दुर्जन और सज्जन दोनों वर्गों की विशेषताएँ अंकित
___ की हैं। जैन नीतिकारों ने दुर्जन को सर्प और 3 __अज्ञात कवि की रचना 'क को' में किसी काम
सज्जन को कल्पवृक्ष के रूप में प्रस्तुत कर क्रमशः की सम्पन्नता के लिए दूसरे की बाट जोहना या
__ उनकी कुटिलता और उदाराशयता की ओर इंगित उसके आधीन रहना दुःखदायी कहा है
किया है । लक्ष्मीचन्द और अज्ञात कवि के दो छन्द हाहा हू व्योहार है के परवश दुखदाय । इस प्रकार हैं
क्यों न आप बसि हूजिये, होय परम सुखदाय ।३६। दुरजन सरप समान बिई छल ताकत डोले । NIE
कृपणता-कविवर विनोदी लाल ने अपनी दुरजन सरप समान, सति वचन कबहु न बोले। सम्वादात्मक रचना कृपण पच्चीसी में पति-पत्नी के दूरजन सरप समान, दूध किम पावो भाई। संवाद के माध्यम से कृपण पति के स्वभाव पर दुरजन सरप समान, अंति विष प्रान हराई। फब्तियाँ कसी हैं ? संत ज्ञानसार तो धन का सदु- दुरजन सम नहीं जान तुव तीन लोक में दृष्टजन। पयोग न करने वाले कृपण को 'मृत' के समान ऐह जांनि भवि तुम धीजमति, तिरस्कृत मानते हैं
लिषमी कहैत भवि लेहु सुन ।१०॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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