Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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वही आनन्द बनारसीदास के अनुवाद से एक इसी पद्य को मूधरदास ने अधिक कुशलता से हिन्दी-भाषी को उपलब्ध होता है । जैसे- ग्रहण किया है। उन्होंने 'मणिदीप' को ज्यों का .
सुमन वृष्टि जो सुरकरहि, हेठ वीट मुख सोहि । त्यों रहने दिया है। ज्यों तुम सेवत सुमनजन, बन्ध अधोमुख होहिं ॥ सिवपुर केरो पन्थ पाप तम सों अति छायो। कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय । दुःख सरूप बहु कूप खण्ड सों बिकट बतायो । भाव सहित जो जिन नमें, तसुगति ऊरध होय ॥
स्वामी सुख सों तहाँ कौन जन मारग लागें । -क्रम संख्या २१, २३ प्रभु प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगें ॥ 'एकीभाव स्तोत्र' हिन्दी-कवियों को बहुत प्रिय रहा है । इसका अनुवाद पं० हीरानन्द, अखयराज,
'विषापहार स्तोत्र' का अनुवाद विद्यासागर ने मूधरदास, जगजीवन और द्यानतराय ने प्रस्तुत
किया है। कवि का यह अनुवाद बड़ा सटीक एवं किया है। 'एकीभाव' के चौदहवें श्लोक का
सार्थक हुआ है। इसी प्रकार भूपाल कवि कृत
'चतुर्विशति स्तोत्र' का अनुवाद भी सुन्दर रूप में अनुवाद करते हुए द्यानतराय लिखते हैंमुकति पन्थ अघ तम बहुभयो,
प्रस्तुत किया गया है । दोहा-चौपाई शैली में कवि ने गढे कलेस विसम विसतरी मूल भावों की पूर्णतः रक्षा की है। सुख सौं सिवपद पहुँचे कोय,
इन अनूदित स्तोत्रों के अतिरिक्त मौलिक जो तुम वच मन दीप न होय ॥ स्तोत्रों की रचना भी प्रचुर परिमाण में ही है। ध्यान देने की बात यह है कि जहाँ वादिराज इस प्रकार जैन-स्तोत्र-साहित्य गुण एवं परिमाण, । ने 'रत्नदीप' लिखा है वहाँ द्यानतराय ने मात्र दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है और एक स्वतन्त्र GI 'दीप' ही रहने दिया है । अवश्य 'मन' शब्द अधिक शोध की अपेक्षा रखता है । ला है । घोर तमिस्रा के बीच 'दीप' की तुलना में
'रत्नदीप' अधिक सटीक एवं सार्थक है।
नोट-लेख में वणित अनेक धारणाएँ लेखक की अपनी स्वतन्त्र हैं। श्वेताम्बर परम्परा की धारणाओं से भिन्नता भी है, अत: लेखक एवं पाठक से निवेदन है, वे इस विषय पर सन्तुलित चिन्तन करें।
-सम्पादक
भद्र भद्रमिति ब्रूयात् भद्रमित्येव वा वदेत् । शुष्कवरं विवादं च न कुर्यात् केनचित् सह ॥
-मनुस्मृति ४/१३६ मानव के लिए उचित है कि सदा ही भद्र-मधुर शब्दों का प्रयोग करे । अच्छा है, उचित है-सामान्य रूप से ऐसा ही कहना उचित है। किसी के भी साथ व्यर्थ की शत्रता अथवा विवाद करना उचित नहीं है।
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
70 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ories
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