Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म
यह सत्य है कि जैन-दर्शन के अनुसार मोक्ष की पाई ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ प्राप्ति के लिए जीव को अपने पुरुषार्थ के अतिरिक्त
___ अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों किसी बाहरी सहायता की अनिवार्यता नहीं है PRER का भेदन करने वाले वीतरागी, विश्व के तत्वों को किन्तु यह भी सत्य है कि जैसे दर्पण में मुंह देखने से
जानने वाले सर्वज्ञ, आप्त (अर्हन्त) की भक्ति उन्हीं मनुष्य अपने चेहरे की विकृति को यथावत् देख के गुणों को पाने के लिए करता हूँ।
सकता है और देख लेने के उपरान्त उसे दूर करने जैनधर्म में भक्ति का स्वरूप
का प्रयत्न कर सकता है, उसी प्रकार जैनधर्म
मानता है कि परमात्मा के दर्शन से हम अपने मनजैनधर्म आचार और ज्ञान-प्रधान धर्म है।
वचन की विकृति को दूर करके अपने वास्तविक इसमें जीव अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता स्वयं ही
स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं । यद्यपि जीव कर्म है। जैन-दर्शन में आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत
करने में स्वतन्त्र है किन्तु परमात्मा की स्तुति उसे की गई है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि की उच्च
शुभ कर्म करने की प्रेरणा देती है। प्रार्थना से वह तम अवस्था ही मोक्ष है। जीव अपने बंधाबंध के
__मल नष्ट हो जाता है और अन्तःकरण शुद्ध एवं लिए स्वयं उत्तरदायी है। इसी आधार पर कुछ
स्वच्छ हो चमकने लगता है। कल्याण मन्दिर स्तोत्र लोगों का तर्क है कि यदि आत्म-पूरुषार्थ से ही
(८) में कहा गया हैजीव अपने कर्मों का क्षय कर सकता है तो उसे ।
हृतिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति भगवत्-अनुग्रह की क्या आवश्यकता ?
जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । एक तथ्य और है जिससे जैनधर्म को भक्ति
सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग, विरोधी प्रमाणित किया जाता है। भक्ति के मूल
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। में राग है। ज्ञाता के हृदय में ज्ञय के प्रति जब तक राग की भावना नहीं आती तब तक भक्ति का
हे कर्म बन्ध विमुक्त जिनेश ! जैसे जंगली र उद्भव नहीं हो सकता। भक्ति का अर्थ परात्म- मयूरों के आते ही चन्दनगिरि के सुगन्धित चन्दन विषयक अनुराग ही है-सा परानुरक्तिरीश्वरे वृक्षों में लिपटे हुए भयंकर भुजंगों की दृढ़ कुण्ड(शांडिल्य सूत्र १/१/२)। जैन-दर्शन में किसी भी लियाँ तत्काल ढीली पड़ जाती हैं, वैसे ही जीव के प्रकार के राग को आस्रव का कारण माना गया
मन-मन्दिर के उच्च सिंहासन पर आपके अधिष्ठित है। अतः इस तर्क के आधार पर भक्ति भी बन्धन होते हो अष्ट कर्मों के बन्धन अनायास ही ढीले पड़ का ही कारण सिद्ध होती है।
जाते हैं।
आचार्य समन्तभद्र जिन्हें 'आद्य स्तोतकार' होने तोसरी बात यह है कि जब तक भक्ति का आलम्बन सगुण और साकार नहीं होता तब तक
का गौरव प्राप्त है लिखते हैंभक्ति सिद्ध नहीं हो सकती। यद्यपि जैनधर्म में
त्वदोष शान्त्या विहितात्म शान्ति भक्ति के आलम्बन अर्हत, सिद्ध आदि सगुण और
शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । साकार हैं किन्तु वीतरागी होने के कारण इन्हें
भूयोद् भवक्लेश भवोपशान्त्य, भक्तों के योग-क्षेम से कोई प्रयोजन नहीं होता।
शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ।। ___ अतः उपर्युक्त परिस्थितियों में भक्ति की
-स्वयम्भू स्तोत्र ११ अनिवार्य भाव-भूमि के लिए जैन धर्म अनुर्वर है, हे शान्तिजिन! आपने अपने दोषों को शान्त ऐसा कहा जाता है।
करके आत्मशान्ति प्राप्त की है तथा जो आपकी ३६४
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
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(6, 805साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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