Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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२०- शान्ति - जिन स्तुति - ( महास्वस्तिक बन्धमयी) - अज्ञात कवि
किसी अज्ञात रचनाकार ने इस स्तुति का निर्माण किया है। इसके पद्यों से " महास्वस्तिक बन्ध' की रचना होती है । आकृति में स्वस्तिक, कोणयष्टि, परिधि और विदिक् चतुष्कोणों का समावेश है । सन्धि स्थल और कणिका में निहित अक्षर श्लिष्ट हैं । उदाहरण के लिये एक पद्य दर्शनीय है
कल्याणकेलिकदलीगृहसं निवासं, संसारपारकरणककला विलासम् । संवेगरङ्ग गणसंनिहितप्रियासं, संसारिणां सुखकरं निखिलं जिनेनम् ॥ इस स्तुति का चित्राकार ही प्राप्त हुआ है और उसके कोने कट गये हैं, तथापि हमने इसकी पूर्ति ' करके लक्षण- सहित “ सङ्गमनी" पत्रिका में"चित्रबन्ध साहित्ये स्वस्तिक बन्धाः " नामक लेख में प्रकाशित किया है ।
२१- पार्श्वनाथ - स्तव - जिनभद्र सूरि
सन् १६३३ ई० के निकट १८ पद्यों में इस स्तव की रचना हुई है । इसमें जिन चित्रबन्धों की रचना हुई है, उसका निर्देश कवि ने प्रथम पद्य में ही इस प्रकार कर दिया है
चक्रेण ध्वजचामरे सुरुचिरे छत्रोत्पले दीपिकामुद्दामासनदर्पणौ च दधता श्रीवत्सशङ खावपि । घण्टाहारलतां विमानमनघं सत्तोरणं स्वस्तिकं, प्रेङ खन्तं कलशं सुरेन्द्रसहितं श्रीपार्श्वनाथं स्तुवे ॥ १॥ शेष १८ पद्यों से १८ बन्ध बनते हैं । 'दीपिका - बन्ध' का पद्य इस प्रकार है
सदा समसमापाय-हरामाय वचस्तव । वरानराणां धीराणां स्तुत्यराव श्रये धनम् ||७|| स्तव - इन्द्र
२२- नागपाशबन्धमय - महावीर सौभाग्यगणि
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इसकी रचना की है। अजितसेन ने 'अलङ्कारचिन्तामणि' में जो 'नागपाश चित्रबन्ध' दिया है, उसकी अपेक्षा इसकी रचना-पद्धति विशिष्ट है । इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है ।
श्रीमद्वीर जिनाधीशं शङ्करं जगदीश्वरम् । रम्यच्छवि- कनकाभं भजध्वं सुरपूजितम् || २३ - साधारण - जिनस्तव - अज्ञात कर्त क
यह स्तुति किसी प्राचीन आचार्य द्वारा अनेक विचित्रबन्धों से निर्मित है । इसमें छत्र, सिंहासन, चामर आदि के चित्रबन्ध पद्य बनाये हैं । ऐसे ही कुछ अन्य नवीन बन्धों की सृष्टि में भी कवि ने मौलिकता प्रदर्शित की है और इसके अनुकरण की प्रेरणा भी दी है । यह स्तुति अप्रकाशित है और हमें भी पुण्यविजय जी महाराज द्वारा प्राप्त हुई थी । एक-दो पद्य उदाहरण के लिए दर्शनीय हैं
तपोवीर रमाधीश शर्म-कानन-वारिद । दक्ष कक्ष क्षमाक्षन्तः शमिशैक्षविभो जय || १ || ( छत्रबन्ध )
देवदेव स्फुरज्ज्ञान मनोरम-महोदय । यशसा सारयत्वार्य जय संनय गीश्चिरम् ||७| ( पूर्णकलश बन्ध ) - चतुविशति - जिनस्तुति - विविध चित्रबन्धमयअज्ञातकर्त
२४-
गदा,
यह स्तुति भी किन्हीं प्राचीन आचार्य द्वारा निर्मित है । इसमें - 'ओङ्कार, ह्रीङ्कार, नमः, शङ्ख, सुदर्शनचक्रबन्ध, हार, गोमूत्रिका, दर्पण, सुसक, रवि, चन्द्र, वज्र, बीजपूर, खड्ग, शर, धनुष्, छुरिका, हल, कमल, नागपाश, तूणीर, स्वस्तिक और त्रिशूल' आदि चित्र-बन्धों के पद्य दिये हैं । यह स्तुति अपने विविध नये-नये बन्धों की निर्मिति से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह भी अब तक प्रकाशित है और हमने इसका सम्पादन किया
सत्रहवीं शती में पद्यों में इन्द्रसौभाग्यगणि ने है । इसके एक-दो पद्य इस प्रकार हैं
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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