Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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गया, व्याख्यानों की भरमार रही और प्रशंसा पत्र पढ़े गये । लेकिन अत्यन्त खिन्न मन से लिखना पड़ता है कि हमारी कितनी ही दुष्प्राप्य कलाकृतियाँ खण्डित पाई गईं और कुछ तो लापता ही हो गई । बहुमूल्यवान हमारी ये कलाकृतियाँ हमसे सदा के लिए दूर चली गईं। पटना संग्रहालय की अभूतपूर्व यक्षिणी की कलापूर्ण कृति इनमें से एक है । जहाज द्वारा विदेशों में भेजे जाने के पूर्व इन कलाकृतियों का लाखों रुपये का बीमा कराया गया था। ऐसी हालत में किसी मूर्ति के खण्डित हो जाने पर हम चाहें तो उसकी एवज में रुपया वसूल कर सकते हैं लेकिन वह दुर्लभ मूर्ति तो हमें कभी प्राप्त होने वाली नहीं, जिस मूर्ति के रूप सौन्दर्य को गढ़ने और संवारने में हमारे शिल्पियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था ।
आइये, अब जरा अपने गरेबान में झांक कर भी देखा जाये । हम अपने पुरातत्व के ज्ञान से कितने परिचित हैं ! हमारे कॉलेजों और विश्व विद्यालयों में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पढ़ाने वाले कितने अध्यापक ऐसे मिलेंगे जिन्हें संस्कृत, पालि और प्राकृत का ज्ञान होजिन भाषाओं में लिखा हुआ साहित्य पुरातत्व विद्या की आधारशिला है । केवल अंग्रेजी में लिखे हुए ग्रन्थों को पढ़कर प्राचीन भारतीय इतिहास एवं कला में प्रवीणता प्राप्त नहीं की जा सकती । जबकि विदेशी विश्वविद्यालयों में यह बात नहीं है । भारतीय विद्या का अध्ययन करने के लिए संस्कृत आदि भारत की प्राचीन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है । इस सम्बन्ध में सर विलियम जोन्स, चार्ल्स विलकिन्स, हेनरी कोलब्रुक, एच. एच. विल्सन, फ्रान्ज बॉप, जेम्स प्रिंसेप, जॉन मार्शल, व्हीलर, कीथ, श्री एवं श्रीमती राइस डैविड्स, हरमान याकोबी, रिशार्ड पिशल आदि कतिपय विदेशी विद्वानों का नामोल्लेख करना पर्याप्त होगा जिन्होंने भारत की प्राचीन भाषाओं
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और साहित्य का गहन अध्ययन कर अपने-अपने क्षेत्र में वैशिष्ट्य प्राप्त किया ।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि विश्वविद्यालयों की उच्च कथाओं में पढ़ने वाले कितने ही छात्र और छात्राएँ भारत की प्राचीन संस्कृति, उसकी कला और इतिहास के ज्ञान से सर्वथा ही वंचित रहते हैं । उन्हें बम्बई के पास स्थित एलीफैण्टा टापू को त्रिमूर्ति, उड़ीसा के कोणार्क, राजस्थान के रणकपुर मन्दिर एवं दक्षिण भारत के एक से एक कलापूर्ण मन्दिरों के सम्बन्ध में अत्यन्त अल्प, नहीं के बरावर जानकारी है ।
भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तत्वावधान में जो कभी-कभार उत्खनन का कार्य चलता है उसकी जानकारी भी साधारण जन को प्रायः कम ही मिलती है। इसके सम्बन्ध में प्रायः भारीभरकम अँग्रेजी की पत्रिकाओं आदि में हो लेख प्रकाशित किये जाते हैं जो सामान्य जन की पहुँच के बाहर हैं। इसके अलावा, हमारी कितनी ही कलाकृतियाँ तो चोरी चली जाती हैं जो देश-विदेश में बहुत ऊँची कीमत पर बिकती हैं ।
सुप्रसिद्ध सम्राट् अशोक (२७४-२३७ ई. पू.) ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक जगह-जगह शिला लेख उत्कीर्ण कराये और बड़े- बड़े स्तूप स्थापित किये । लेकिन आगे चलकर हम इन ऐतिहासिक महत्वपूर्ण | स्तूपों का मूल्य आकलन करने में असमर्थ होकर इन्हें पराक्रमी भीम की लाट कहकर पुकारने लगे, या फिर शिवजी का लिंग मानकर इनकी पूजाउपासना करने लगे। बिहार राज्य में परम्परागत कितने ही मठ-मन्दिर आज भी मौजूद हैं जहाँ भक्त गणों द्वारा मूर्ति के ऊपर सतत जल प्रक्षेपण किये जाने के कारण मूर्ति का वास्तविक रूप ही भ्रष्ट हो गया है तथा चन्दन और सिन्दूर पोते जाने के कारण वह ओझल हो गया है ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ o.co
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